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नमस्कारस्मृतिः
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अयोगयोगसिद्ध्यर्थं सदा सर्वज्ञभाषित!।
त्वां वन्देऽहं नमस्कार! ज्ञानवैराग्यमुक्तिदम्।।४२।। हे! नमस्कार, तुम ज्ञान-वैराग्य और मुक्ति के देनेवाले हो, अतः हे! सर्वज्ञभाषित नमस्कार! अयोगयोग की सिद्धि के लिए मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ।।४२।।
जगत्सर्वं हि विस्मृत्य योगदृष्ट्या विवेकिनः।
त्वयि लीना नमस्कार! चेष्टन्ते शुष्कपर्णवत्।।४३।। हे! नमस्कार योगदृष्टि के द्वारा विवेक को उपलब्ध आत्मा पूरे जगत को भूलकर केवल तुझ में लीन हो जाता है। सूखे पत्ते की तरह (सभी सांसारिक) चेष्टा करते हैं।।४३।।
साम्यपीयूषधाराभिः प्रक्षालितमनोमलाः।
त्वच्छक्क्या हि नमस्कार! लयं यान्ति निजात्मनि।।४४।। हे! नमस्कार समता रूप अमृतधारा से मन के मैल को धोकर विवेकी जन तुम्हारी शक्ति से ही आत्मा में लीन होते हैं।।४४।।
यस्य स्वात्मनि विश्रान्तिस्तव ध्यानाद्धि वर्तते।
स भवेऽस्मिन्नमस्कार! कर्मणा नैव लिप्यते।।४५।। हे! नमस्कार! जिस आत्मा को तुम्हारे ध्यान से ही आत्मशान्ति उपलब्ध हुई है वह इस संसार में कर्म से लिप्त नहीं होता।।४५।।
त्वयि विश्राम्य तिष्ठामि साक्षिरूपेण सर्वदा।
देहं त्यक्त्वा नमस्कार! महामुक्तिप्रदायक!।।४।। हे! महान् मुक्ति देनेवाले नमस्कार, तुझ में मन लगाकर शरीर को भूलकर मैं साक्षीरूप में रहता हूँ।।४६।।
सर्वक्लेशापनोदाय महानन्दपदाय च।
प्रार्थेयेऽहं नमस्कार! मम चेतः प्रसादय।।४७।। सभी क्लेशों को दूर करनेवाले महानन्द को देनेवाले हे! नमस्कार मैं तुम्हें प्रार्थना करता हूँ कि मेरे चित्त को विशुद्ध करो।।४७।।