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योगकल्पलता
गुणानां भावनात्स्वस्मिन् सर्वदा परमेष्ठिनाम्।
नमस्कारेऽतिरागाद्वै सद्ध्यानं प्राप्यते क्षणात्।।४२।। पञ्चपरमेष्ठि के गुणों को सद्भावना से अपने चित्त में धारण करके अत्यन्त प्रेम से नमस्कार का ध्यान करने से सद्ध्यान की प्राप्ति होती है।।४२।।
अन्तकाले भवन्त्येव सर्वशास्त्रविशारदाः।
नमस्कारे सदा लीना ध्यानमग्नाः प्रतिक्षणम्।।४३।। सभी शास्त्र प्रविण (महापुरुष भी) अन्त समय में नमस्कार के ध्यान में सदा लीन होते हैं।।४३।।
प्रशमामृतपूर्णेऽस्मिन्मन्त्रे सर्वज्ञभाषिते।
नमस्कारे दृढं चेतस्तनोत्येवामृतं पदम्।।४४।। प्रशमामृत से पूर्ण सर्वज्ञ द्वारा कहे गए इस मन्त्र में चित्त को दृढ करने से अमृत पद की प्राप्ति होती है।।४४।।
ज्ञानवैराग्ययुक्तानामात्मैश्वर्यप्रदायिनी।
नमस्कारे भवेद्भक्तिर्भव्यानां भाग्यशालिनाम्।।४५।। आत्मा को ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले नमस्कार मन्त्र में भाग्यशालि ज्ञान और वैराग्य से युक्त भव्य जीवों की भक्ति है।।४५।।
सर्वसङ्गपरित्यागी सदाभ्यासं करोति यः।
नमस्कारे स यात्येव शिवमात्मनि संस्थितम्।।४६।। जो सभी बाह्य सम्बन्धों को छोडकर आत्मा में नमस्कार का सदा अभ्यास करता है वह निश्चित ही आत्मस्थित मोक्ष प्राप्त करता है।।४६।।
निरन्तरं तपस्तप्तं सेवितं सुव्रतं चिरम्।
नमस्कारे न चेल्लग्नं मनः सर्वं निरर्थकम्।।४७।। __निरन्तर तपस्या की तथा चिरकाल तक व्रत का आचरण किया किन्तु नमस्कार में मन स्थिर नहीं है तो सब निरर्थक है।।४७।।