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दर्शने स्पर्शने चैव संलापे स्मरणे तथा । आशे! तवैव संयोगे गिरीशस्य महासुखम् ॥ ८८ ।।
हे आशे ! दर्शन-स्पर्श- बातचीत या स्मरण में किसी भी तरह से तुम्हारा ही संयोग भगवान् शंकर का सुख है। ।। ८८ ।।
आशे ! नित्यं गिरीशस्य सुखं वाञ्छसि भावतः । तस्मात्त्वमेव तस्यासि मनोविश्रामभूमिका । । ८९ ।।
योगकल्पलता
आशे! तुम भाव से हरसमय भगवान् शंकर का सुख चाहती हो इसलिये तुम ही उनके मन का उपयुक्त विश्रामस्थल हो। ।।८९।।
आशे ! पूर्वानुरागाद्धि मदनावेशसम्भ्रमात्।
गिरीशं प्रति गच्छन्ती त्वमेवैकाऽभिसारिका ।। ९० ।।
हे आशे! पूर्व प्रेम से ही तुम अकेली अभिसारिका (पति निर्दिष्ट स्थान पर जानेवाली) हो जो वसंतऋतु में आदर से भगवान् शंकर के पास जा रही हो। ।।९।। रूपसौभाग्यसम्पन्ना भ्रूविलासमनोहरा ।
प्रीतियुक्ता गिरीशेन त्वमेवाशे निषेविता । । ९१ ।।
हे आशे! तुम अत्यंत रूपवती, सौभाग्यशालिनी तथा सुन्दर भौंहे वाली हो जो अकारण ही प्रेम को उत्पन्न करती है; अत एव भगवान् शंकर के द्वारा आलिंगित हो। ।।९१।।
शक्तिश्शिवश्शिवश्शक्तिः रहस्यं ननु तान्त्रिकम् ।
आशे ! तद्रसिकैर्मन्ये सामरस्ये विभाव्यते ।। ९२ ।।
हे आशे ! शक्ति शिव है या शिव शक्ति है यह तो तंत्रशास्त्र का विषय है किंतु रसिक (योगी) तो इसे समरसता ही मानते हैं। ।।९२।।
आशे! तवैव संसारे नानामतावलम्बिभिः । ध्यानमार्गेरसङ्ख्यैश्च साधना क्रियते सदा । । ९३।।
हे आशे! संसार में अनेक मत को माननेवाले असंख्य ध्यानमार्ग से तुम्हारी ही साधना करते हैं। ।।९३।।