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आशाप्रेमस्तुतिः
हँसाती हो, मुझे शीघ्र ही चिंता शोक वगैरे से रहित स्थान पर ले जाती हो (अर्थात् तुम्हारे ध्यान में मैं शीघ्र ही विषयविमुख होता हूँ) ।
५८।।
विस्मृतिरेव देहस्य विरक्तिर्विषयादिषु ।
आशे! योगपराकाष्ठा वियोगे तेऽनुभूयते । । ५९ ।।
हे आशे! तेरे वियोग में योग की पराकाष्ठा का अनुभव होता है, देह का विस्मरण हो जाता है, विषय कषाय में विरक्ति हो जाती है। ।।५९।।
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योगिभिरीड्यपादाब्जा परमार्थप्रकाशिका ।
गिरीशस्य शरीरार्द्ध त्वमेवाशे ! विराजसे । ६०॥
हे आशे! तेरे चरणकमल योगियों के द्वारा पूजने योग्य है, तुम परम तत्त्व को प्रकाशित करनेवाली हो, भगवान् शंकर के आधे अंग को सुशोभित करनेवाली हो। ।।६०।।
विदित्वा ब्रह्मविज्ञानं प्रमोदभरनिर्भरम् ।
आशे ! लग्नं प्रसादात्ते मनो मे तत्त्वचिन्तने । । ६१ ॥
हे आशे! ब्रह्मज्ञान होनेपर आनन्द से भरा हुआ मेरा मन तुम्हारी कृपा से तत्त्वचिंतन में लगा रहता है। ।।६१।।
आशे! प्रबोधमापन्नो बद्धाञ्जलिपुटस्सदा ।
त्वां ध्यायामि रहस्स्थित्वा त्रिलोकीदेवतां पराम्।।६२।।
हे आशे! ज्ञानप्राप्ति के बाद मैं एकांत में हमेशा हाथ जोडकर सर्वोत्कृष्ट तीनों लोकों की देवता स्वरूप तुम्हारा ध्यान करता हूँ। ।।६२।।
आशे ! निधाय चित्ते त्वां त्वयि चित्तं निधाय मे। ऐकात्म्यं परमं प्राप्य लये तिष्ठामि सर्वदा ।। ६३ ।।
हे आशे ! तुम्हे मेरे चित्त में तथा मेरे मन को तुम्हारे चित्त में स्थापित करके तथा उससे एकात्मता (अभेदता) को प्राप्त करके उसमें लीन हो जाता हूँ (अर्थात् ध्यान गहरा होनेपर आत्मतत्त्व में खो जाता हूँ) । ।।६३।।