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________________ योगकल्पलता आशे! लीलारता त्वं हि नेत्रश्रोत्रमनोहरा। शृङ्गाररसपूर्णा तु परब्रह्मप्रकाशिका।।५३।। आशे! तुम लीला में रत होकर मेरे आँख, कान और मन को हरण करनेवाली हो, तुम शृङ्गाररस से पूर्ण तथा परब्रह्म को बतानेवाली (साक्षात्कार करानेवाली) हो। ।।५३।। आशे! गुणेन रूपेण तवैवाहं विमोहितः। सदा त्वामेव पश्यामि स्वप्ने समीपवर्तिनीम्।।५४।। आशे! तुम्हारे रूप और गुण से मोहित होकर मैं हमेशा स्वप्न में भी तुमको ही समीप में बैठी देखता हूँ। ।।५४।। आशे! त्वद्ध्यानलीनस्य चित्ते मे परमात्मनः। उत्पद्यते स्वयं रूपं प्रकृष्टप्रणयान्वितम्।।५५।। हे आशे! तुम्हारे ध्यान में मग्न होने पर मेरे मन में उत्कृष्ट प्रेम से भरे हुए परमात्मा का रूप (छाया) स्वयं ही उत्पन्न होता है। ।।५५।। आशे! ते प्रेम सम्प्राप्य गिरीशेन निरन्तरम्। क्रियते वै स्तुतिर्दिव्या तवाराधनलक्षणा।।५६।। हे आशे! तुम्हारे प्रेम को पाकर भगवान शंकर तुम्हारे रूप-सौन्दर्य आदि लक्षणों से युक्त स्तुतिद्वारा तुम्हारी आराधना करते हैं। ।।५६।। संसारमोहनाशाय तव प्रेमपरायणः। आशेऽहं सर्वभावेन ध्यायामि त्वां प्रतिक्षणम्।।५७।। हे आशे! मैं तुम्हारे प्रेम में लीन हूँ, सांसारिक मोह के नाश के लिए समर्पण भाव से सतत मैं तुम्हारा ध्यान करता हूँ। ।।५७।। हसन्ती हासयन्त्येव वचनैर्मधुरैस्सदा। आशे! मां नयसि शीघ्रं चिन्तादिरहितं पदम्।।५८।। हे आशे! तुम सदा हँसती रहती हो तथा अपने मधुर वचन से दूसरों को
SR No.009267
Book TitleYogkalpalata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirish Parmanand Kapadia
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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