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।।आशाप्रेमस्तुतिः।।
नत्वा वीरं गुरुं भक्त्या जननीं जनकं तथा । आशाप्रेमस्तुतिर्दिव्या तन्त्रदृष्ट्या विरच्यते।।१।।
भगवान् महावीर को, गुरु को, माता-पिता को भक्तिपूर्वक नामस्कार करके तांत्रिक दृष्टि से आशाप्रेमस्तुतिः नामक दिव्य स्तुति ग्रंथ की रचना करता हूँ। ||१||
कृत्वा रसात्मकं काव्यं प्रसन्नहृदयोर्मिभिः । पादप्रक्षालनं नित्यमाशे ! भक्त्या करोमि ते।।२।।
इस भावनात्मक काव्य की रचना करने के बाद हृदय में उठे तरंगों से हे आशे! (=कुण्डलिनी) भक्तिपूर्वक मैं तेरे चरणों का प्रक्षालन करता हूँ। ।।२।।
आशेऽहं कृतपुण्यश्च लोके धन्यतमो ध्रुवम्। त्वामाराध्यामतस्स्तोतुं भारती मे प्रवर्तते ।।३।।
हे आशे ! मैं पुण्यशाली और भाग्यवान हूँ कि तुम जैसी आराध्या की स्तुति करने में मेरी वाणी प्रवृत्त ( मुखरित) होती है । || ३ ॥
आशे! त्वदीयसौन्दर्यं मत्वा पीयूषमद्भुतम्। प्रेमपात्रे समादाय नेत्राभ्यां पीयते मया ॥४॥
हे आशे! तुम्हारे अद्भुत सौन्दर्य को अमृत समझकर प्रेमपात्र में लेकर मेरी दोनों आँखों से पीता हूँ। ॥४॥
एकाग्रमनसा ध्यात्वा त्वामेवाशे ! जितेन्द्रियः ।
महावाणीपतिस्साक्षाज्जायते नात्र संशयः ॥ ५ ॥
हे आशे ! जो साधक इन्द्रियों पर विजय पाकर एकाग्र मन से तेरा ध्यान करता है, वह निःसंदेह महान् वाचस्पति हो जाता है। ।।५।।