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पंडित देवसेन के अनुसार नय भेद ___पंडित देवसेनजी ने नयचक्र आलापपद्धति में नयों का अध्यात्म की भाषामें वर्गीकरण किया है। अध्यात्म की दृष्टि से नय के दो प्रकार है – निश्चयनय और व्यवहारनय नय। निश्चय नय अभेद को विषय बनाता है, व्यवहार नय भेद को विषय बनाता है। (याद रहे यह अध्यात्म नय के भेद है ) निश्चयनय के दो भेद है-शुद्धनिश्चय नय और अशुद्ध निश्चय नय।
शुद्धनिश्चय नय- आत्माके निरुपाधिक गुणों का आत्मा के साथ अभेद करना शुद्धनिश्चय नय है जैसे केवलज्ञान आत्मा का निरुपाधिक गुण है। उसका आत्मा के साथ अभेद ज्ञान करना कि 'आत्मा केवलज्ञानमय है' शुद्धनिश्चय नय है।
अशद्धनिश्चय नय- आत्मा का गण जो कर्मो से प्रभावित है उनका आत्मा के साथ अभेद ज्ञान करना अशुद्ध निश्चय नय है, जैसे मतिज्ञान नय आत्मा है। यहां मतिज्ञान, ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत आत्मा का गुण है, अतः सोपाधिक होने से अशुद्धनिश्चय नय का विषय है।
व्यवहारनय के दो भेद है – सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहार नय प्रधानतया भेद को विषय बताता है। सद्भूत व्यवहारनय एक ही वस्तु में गुण गुणि द्रव्य पर्याय का भेद बताना सद्भूत व्यवहारनय है।
असद्भत व्यवहारनय-अन्य द्रव्य से प्रस्तुत द्रव्यके भेद की विवक्षा असद्भत व्यवहार है। जैसे जीव जड से अलग है।
सद्भत व्यवहार के दो प्रकार है-उपचरित सद्भूत व्यवहार और अनुपचरित सद्भूत व्यवहार। उपचरित सद्भत व्यवहार कर्म रूप उपाधि से सहित गुण और गुणि के भेद को विषय बताता है। जैसे मतिज्ञानादि आत्मा के गुण है, यहां आत्मा और ज्ञान का भेद विषय है अनुपचरित सद्भत व्यवहार नय कर्मोपाधि से सहित गुण गुणि के भेद को विषय बताता है। जैसे केवलज्ञान आत्मा का गुण है।
असद्भुत व्यवहार भी दो प्रकारका है-उपचरित असद्भत व्यवहारनय और अनुपचरित असद्भूत व्यवहार।
उपचरित असद्भूत व्यवहार अन्य द्रव्य से असंलग्न वस्तु के संबंध से विषय बताता है। जैसे धन आत्मा से संलग्न नहीं है फिर भी 'देवदत्तस्य धनम्' कहकर दोनों का संबंध बताया जाता है। __अनुपचरित असद्भत व्यवहार संलग्न वस्तुके संबंध को बतानेवाला अनुपचरित असद्भत व्यवहार है। जैसे जीव का शरीर है। यहां पर जीव और शरीर संलग्न है।
सातवां प्रमाणद्वार
परोक्ष और प्रत्यक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकारका है-परोक्ष और प्रत्यक्षा इन्द्रिय से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। मति और श्रुतज्ञान परोक्ष है। इन्द्रिय के बिना होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। वह अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान यह तीन प्रकारका है।
आठवां भावद्वार
जीव और कर्म का संयोग अनादि है। विश्व में षड् द्रव्यों की स्थिति अनादि है। द्रव्यों की अपनी विविध अवस्थाएं होती है। उसे भाव कहते है। जीव की अपनी स्वतंत्र अवस्था और कर्म के संयोग-वियोग आदि से निष्पन्न