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________________ कलत्रादि आत्मद्रव्य से संश्लिष्ट नहीं है फिर भी उन्हें 'मेरा है' यह कहना असंश्लिष्ट असद्भूत अशुद्धव्यवहार नय है। व्यवहार नय के अन्य भेद अथवा व्यवहार नय के दो भेद है-विभजन और प्रवत्ति। विभजन व्यवहार का शाब्दिक अर्थ यह हो सकता है कि जो विभाजन करता है। वस्तगत सामान्य से विशेष को अलग करता है वह विभजन व्यवहार है। जैसे पथ्वी सामान्य से घटत्व का विभजन करना। प्रवृत्ति व्यवहार का अर्थ है। विभजन से प्राप्त विशेष धर्मका व्यवहार में उपयोग करना। जैसे घटरूप विशेष का घटत्वविशिष्ट घट का जलाहरणादि रूप कार्य में उपयोग होता है। प्रवृत्ति व्यवहार के तीन प्रकार है – वस्तुप्रवृत्ति व्यवहार, साधनप्रवृत्ति व्यवहार और लौकिकप्रवृत्ति व्यवहार अथवा व्यवहार नय के दो भेद है – विभजन और प्रवृत्ति। प्रवृत्ति तीन प्रकार की है। वस्तु, साधना और लौकिक। वस्तुप्रवृत्ति व्यवहार में वस्तुकी प्रवृत्ति होती है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप को उपलब्ध करने के साधन की प्रवृत्ति को साधन प्रवृत्ति कहते है। लोकद्वारा निर्मित संज्ञा या परंपरा या धारणाओं से निर्मित प्रवृत्ति को लोकप्रवृत्ति व्यवहार कहते है। उदाहरण बुधवार को दक्षिण दिशामें जाना निषिद्ध है इत्यादि। साधन प्रवृत्तिव्यवहार के पुनः तीन प्रकार है – लोकोत्तर साधन प्रवृत्ति , लौकिक साधन प्रवृत्ति और कुप्रावचनिक साधन प्रवृत्ति। आत्मासाधना की जो प्रवृत्ति जिनाज्ञानुसारिणी होती है उसे लोकोत्तर साधन प्रवृत्ति व्यवहार नय कहते है। आत्मसाधना की जो प्रवृत्ति अन्य धर्म के अनुसार ( जिनाज्ञा से विपरीत ) होती है उसे कुप्रावचनिक साधनप्रवृत्ति व्यवहारनय कहते है। अपने अपने कुल के रिवाज अनुसार जो साधन की प्रवृत्ति होती है उसे लौकिक साधन प्रवृत्ति व्यवहार नय कहते है। व्यवहार नय के अन्य भेद अन्य ग्रंथ में शुद्ध-शुभ-उपचरित और इन तीनों के विपरीत भेद से व्यवहारनय छहः प्रकार का है। शुद्धव्यवहार नय, अशुद्धव्यवहार नय, शुभव्यवहार नय, अशुभव्यवहार नय, उपचरितव्यवहार नय, अनुपचरितव्यवहार नया शद्धव्यवहार – जिसमें सामान्य या अभेद विषय नहीं बनता। जैसे घटत्वविशिष्ट घट को घट कहना। यहां घट विशेष है और वह घटत्वेन = विशेषरूप से ही गृहीत होता है अतः भेद प्रधान होने से शुद्ध व्यवहार नय है। अशुद्धव्यवहार नय : जो अल्पअंश में सामान्य को या अभेद को विषय बनाता है , जैसे पृथ्वीत्व विशिष्ट घट को घट कहना। यहां घट विशेष है और पृथ्वीत्वेन = सामान्य रूपसे गृहीत होता है। आंशिक संग्रह का संमिश्रण व्यवहार नय को अशुद्ध बताता है। शुभ व्यवहार नय : शुभ का अर्थ है प्रशस्त जो शुभ वस्तु को व्यवहार का विषय बताता है। जैसे सत्य बोलना धर्म है। सत्यवचन धर्म का साधन है, अतः शुभ है। उपचरित व्यवहार नय : उपचार प्रधान व्यवहार उपचरित व्यवहार नय होता है जैसे - शौर्यादि गुण के सादृश्य से किसी आदमी के शेर(सिंह) कहना। अनुपचरित व्यवहार नय :बिना उपचार का व्यवहार अनुपचरित व्यवहार नय है , जैसे सिंह को सिंह कहना। ऋजुसूत्र आदि नय के एक एक ही भेद कहे हैं।
SR No.009265
Book TitleSyadvada Pushpakalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitranandi,
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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