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________________ २६ सामान्य कारण में कार्यारोप और अपेक्षा कारण में कार्यारोप । कारण की व्याख्या : जिसके होने से कार्य होता है और नहीं होने से कार्य नहीं होता वह उस कार्य का कारण होता है। यहां कारण के चार प्रकार ज्ञातव्य है। कार्य जिस कच्ची सामग्री से आकार लेता है उसे उपादान कारण कहा जाता है, जैसे मटका मीट्टी से बनता है। मिट्टी घटका उपादान कारण है। जिस सामग्री की सहायता से कार्य संपन्न होता है वह सामग्री निमित्त कारण होती है, जैसे घट के प्रति दण्ड निमित्त कारण है । दण्ड ही चक्र में भ्रमण पैदा करके घट संपन्न करने में सहकारी होता है। कार्य मात्र के प्रति काल, देश, कर्म इत्यादि साधारण कारण होते है वे सामान्य कारण है। अपेक्षा कारण कार्य में साक्षात् कारण नहीं होते फिर भी जिनके बिना कार्य नहीं होता । घट के प्रति कुम्हार का वाडा जल घट का साक्षात्कारण नहीं है। वह मृत्तिका बनाने में सहयोगी होता है। उसे प्रयोजक भी कहा जाता है। । इन चारो कारणों मे कार्य को आरोप का उदाहरण प्रस्तुत है। मीट्टी ही घट है या दूध ही घी है यह उपादान कारण में कार्य का आरोप है। आयुर्घृतम् यह निमित्त कारण में कार्य का आरोप है। कर्म ही जीवन है यह सामान्य कारण में कार्य का आरोप है। कुम्हारवाडा ही घट है यह अपेक्षा कारण में कार्य का आरोप है। संकल्प नैगम नैगम नय का दूसरा भेद-संकल्प है। उसके दो प्रकार है-स्वपरिणाम और कार्यान्तर । संकल्प का अर्थ यहां पर द्रव्य का रूपांतरण प्रतीत होता है। द्रव्य एकरूप का त्याग कर दूसरे रूप को धारण करता है, इस रूपांतरण को संकल्प कहते है। द्रव्य का रूपांतरण दो रूप में हो सकता है। एक, द्रव्य का अपना ही परिणाम होता है, जैसे दही का परिणमन श्रीखंड में होता है। उसे स्वपरिणाम संकल्प कहा जाता है। द्रव्य अपने वर्तमान स्वभाव को छोडकर बिलकुल अलग स्वभाव धारण कर ले तो कार्यान्तर संकल्प होता है। जैसे दूध से दही बनता है। दही, दूध का कार्यान्तर संकल्प होता है। अंश नैगम दो प्रकार का है। भिन्न अंश और अभिन्न अंश अंश का अर्थ है अवयव = वस्तु का एक भाग । वस्तुका अपना भाग जब वस्तु से पृथक् हो जाता है उसे भिन्न अंश कहते है और वस्तु के साथ जुडा हुआ रहता है तो अभिन्न अंश कहते है। भिन्न अंश नैगम नय वस्तु के भिन्न अंश को भी स्वीकार करता है। अभिन्न अंश नैगम नय वस्तु के अभिन्न अंश को देखता है। यह नैगम नय के उत्तर भेद है। संग्रह नय के भेद संग्रह नय सामान्य और विशेष दो प्रकार का कहा गया है। सामान्य संग्रह नय मूल और उत्तर प्रभेद से दो प्रकार का है। पहला अस्तित्व वगैरह छहः प्रकार का है। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, सत्त्व और अगुरुलघुत्व। वस्तुत्व विशेष की व्याख्या पूर्व में कही गयी वही है। यह वस्तु के मूलभूत सामान्य धर्म है। मूल संग्रहनय उनका प्रधानरूपसे ग्रहण करता है। उत्तर सामान्य संग्रह नय अपने समुदाय की अपेक्षा से विविध प्रकारका है क्योंकि वह जाति से भिन्न भिन्न स्वरूप का होता है। समान प्रतीत होनेवाले द्रव्यों में सादृश्य की प्रतीति जाति द्वारा होती है। वस्तुत्व आदि सामान्य धर्म से व्याप्य घटादि द्रव्य में वर्तमान घटत्वादि धर्म सादृश्यप्रतीति के हेतु है। अतः वे उत्तर जाति है। घटत्व जाति घट समुदाय को एक करती है। ऐसी जातियां अनेक है। इसलिये उत्तर सामान्य संग्रह नय द्विविध प्रकार का है। विशेषावश्यक के अनुसार संग्रह नय के चार प्रकार है - व्यतिरेक, अनुगम, संगृहीत और पिंडित।
SR No.009265
Book TitleSyadvada Pushpakalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitranandi,
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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