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स्याद्वादपुष्पकलिका
जेम ज्ञानगुण छे पण ज्ञान तेज आत्मा एम ज्ञानने आत्मा कह्यो ते गुणनो आरोप को माटे गुणारोप। तथा जेम श्रीवीरनिर्वाण थया तेने तो घणो काळ गयो छे पण आज दीवालीना दीवसे वीरनो निर्वाण छे एम कहेवू ए वर्तमानमां अतीतनो आरोप कर्यो। अथवा आज श्रीपद्मनाभ प्रभुनो निर्वाण छे, एम कहेवू तेम वर्तमानने विषे अनागत कालनो आरोप छे एवी तें। वली अतीतना बे भेद छे, तथा एवीज रीते अनागतना बे भेद छे। अने वर्तमानना बे भेद उपर कह्या ते सर्व मली कालारोपना छ भेद जाणवा।
वली कारण विषे कार्यनो आरोप करवो ते कारण चार छ। १ उपादान कारण, २ निमित्त कारण, ३ असाधारण कारण, ४ अपेक्षा कारण। तेमां बाह्यद्रव्यक्रिया ते साध्यसापेक्षवालाने धर्म- निमित्त कारण छे, तो पण एने धर्म कहिये। तेमज श्रीतीर्थंकर मोक्षन कारण छे तेथी तेने तारयाणं कह्यो ते कारणने विषे कर्तापणानो आरोप कर्यो, एम आरोपना अनेक प्रकार छे ते कारणाद्यारोप।
वली संकल्पनैगमना बे भेद छे, १ स्वपरिणामरूप जे वीर्यचेतनानो जे नवो नवो क्षयोपशम ते ते लेवो। बीजो कार्यांतरे नवे नवे कार्ये नवो नवो उपयोग थाय ते, ए बे भेद थया।
तथा अंशनैगमना पण बे भेद छे, १ भिन्नांश ते जूदो अंश स्कंधादिकनो, बीजो अभिन्नांश ते जे आत्माना प्रदेश तथा गुणना अविभाग इत्यादिका ए सर्व नैगमनयना भेद जाणवा। एटले नैगमनय कह्यो।
[५४] सामान्यवस्तुसत्तासङ्ग्राहकः सङ्ग्रहः। स द्विविध:- सामान्यसङ्ग्रहो विशेषसङ्ग्रहश्च। सामान्यसङ्ग्रहो द्विविधो-मूलत उत्तरतश्च। मूलतोऽस्तित्वादिभेदतः षड्विधः, उत्तरतो जातिसमुदायभेदरूपः, जातितो गवि गोत्वं, घटे घटत्वं, वनस्पतौ वनस्पतित्वम्। समुदायतो सहकारात्मके वने सहकारवनं, मनुष्यसमुहे मनुष्यवृन्द इत्यादिसमुदायरूपः। अथवा द्रव्यमिति सामान्यसङ्ग्रहो जीव इति विशेषसङ्ग्रहः। तथा विशेषावश्यके
संगहणं संगिण्हइ संगिण्हते व तेण जं भेया। तो संगहो संगिहिय पिडियत्थं वउज्जस्स॥ (वि.आ.भा.२२०३)
सङ्ग्रहणं सामान्यरूपतया सर्ववस्तुनामाक्रोडनं सङ्ग्रहः, अथवा सामान्यरूपतया सर्वं गृह्णातीति सङ्ग्रहः, अथवा सर्वेऽपि भेदा: सामान्यरूपतया सगृह्यन्ते अनेनेति सङ्ग्रहः, अथवा सङ्ग्रहीतं पिण्डितं तदेवार्थोऽभिधेयं यस्य तत् सगृहीतपिण्डितार्थमेवंभूतं वचो यस्य सङ्ग्रहस्येति सङ्ग्रहीतपिण्डितम्। तत् किमुच्यते? इत्याह
संगहीयमागहीयं संपिडियमेगजाइमाणीय। संगहीयमणगमो वा वइरे गोपिडियं भणिय॥(वि.आ.भा.२२०४)
सामान्याभिमुख्येन ग्रहणं सङ्ग्रहीतसङ्ग्रह उच्यते, पिण्डितं त्वेकजातिमानीतमभिधीयते पिण्डितसङ्ग्रहः। अथ सर्वव्यक्तिष्वनुगतस्य सामान्यस्य प्रतिपादनमनगमसङ्ग्रहोऽभिधियते, व्यतिरेकस्तु तदितरधर्मनिषेधाद ग्राह्यधर्मसङ्ग्रहकारकं व्यतिरेकसङ्ग्रहो भण्यते यथा जीवो जीव इति निषेधे जीवसङ्ग्रह एव जातः। अतः सङ्ग्रहपिण्डितार्थानुगमव्यतिरेकभेदाच्चतुर्विधः। अथवा स्वसत्ताख्यं महासामान्यं सगृह्णाति इतरस्तु गौत्वादिकमवान्तरसामान्यं पिण्डितार्थमभिधीयते महासत्तारूपमवान्तरसत्तारूपम्।
एग निच्चं निरवयवमक्कियं सव्वगं च सामन्ना(वि.आ.भा.२२०६) एतन्महासामान्यं गवि गोत्वादिकमवान्तरसामान्यमिति सङ्ग्रहः॥
५४] अर्थ- हवे संग्रहनय कहे छ। सामान्ये मूल सर्व द्रव्य व्यापक नित्यत्वादिक सत्तापणे रह्या जे धर्म तेनो जे संग्रह करे ते संग्रह कहिये। तेना बे भेद छे १ सामान्य संग्रह। २ विशेष संग्रह। वली सामान्य संग्रहना बे भेद छे १ मूल सामान्य संग्रह, २ उत्तर सामान्य संग्रह। वली मूल सामान्य संग्रहना अस्तित्वादिक छ भेद ते पूर्वे कह्या छ। तथा उत्तर सामान्यना बे भेद छे १ जातिसामान्य, २ समुदायसामान्य। तिहां गायना समुदायमां गोत्वरूप जाति छे तथा घटसमुदायमां घटत्वपणो अने वनस्पतिने विषे वनस्पतिपणो ते जातिसामान्य कह्यो। अने आंबाना समूहने विषे अंबवन कहे तथा मनुष्यना समूहमां मनुष्य ग्रहण थाय ते समुदाय सामान्य। ए उत्तर सामान्य ते चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शनने ग्राहीक छे, अने मूल सामान्य ते अवधिदर्शन तथा केवल दर्शनथी ग्रहवाय छ। अथवा १ सामान्यसंग्रह, २ विशेषसंग्रह। तिहां छ द्रव्यना समुदायने द्रव्य का ए सामान्य संग्रह। इहां सर्वनो ग्रहण थयो छ। अने जीवने जीवद्रव्य कही अजीव द्रव्यथी जूदो भेद पाड्यो ए विशेष संग्रह। ए विशेष संग्रहनो विस्तार घणो छ।
तथा विशेषावश्यकथी संग्रहनयना चार भेद ते लखियें छैयें। मूल पाठमां कहेली गाथानो अर्थ छ।