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________________ 43 इसी प्रकार मान, माया और लोभ के चार चार प्रकार हैं। इस द्वार में गुणस्थान के आधार पर कषाय के बंध, उदय और सत्ता के विषय में विचार किया है। ___ इस प्रकार संसारी जीव के विषय में २५ द्वारों का वर्णन कर ग्रन्थकार सिद्धों के विषय में २५ द्वारों का वर्णन करते है। सिद्ध जीव के विषय में २५ द्वार में से पांच द्वार ही होते है। सिद्ध को उपयोग द्वार में केवलज्ञान केवलदर्शन रूप दो उपयोग होते हैं । दृष्टि द्वार में क्षायिक-सम्यक्त्वरूप एक ही दृष्टि होते है। आगतिद्वार में मनुष्यगति से ही आगति होती है। स्थितिद्वार में सादि अनन्त कालरूप स्थिति होती है। अवगाहद्वार में जघन्य और उत्कृष्ट अवगाह होता है। शेष बीस द्वार सिद्धों को नहीं होते। क्योंकि सिद्धों में मिथ्यात्व आदि की संभावना नही होती। इस प्रकार ग्रन्थकार जीव के विषय में २५ द्वारों का वर्णन कर ग्रन्थ को समाप्त करते हुए कहते हैं कि-इस प्रकार पृथ्वी आदि पदों के आधार पर जीव,गणस्थानक आदि द्वारों का चिंतन करने से शुभध्यान सिद्ध होता है। शुभध्यान से कर्म का नाश होता है और संसार का अंत होता है। अतः मलीन आत्मा को शुद्ध ध्यान से विशुद्ध कर जीवन को जन्म, जरा, मरण आदि के दुःखों से मुक्त करें। अंचलगच्छ के युगप्रधान आचार्य श्री आर्यरक्षित सूरिजी की परंपरा में आचार्य श्री जयसिंह सूरिजी हुए। उनके शिष्य आचार्य श्री धर्मघोष सूरिजी के शिष्य आचार्य श्री महेन्द्रसिंहसूरिजी ने वि.सं. १२८४ में स्वपर के कल्याण के लिए यह ग्रन्थ की रचना की है। मूल ग्रंथ १७० गाथा प्रमाण है और टीका २३०० श्लोक प्रमाण है। इस का अध्ययन पठन पाठन श्रवण करनेवाले भव्यात्मा सदा विजय को प्राप्त करें। - रूपेन्द्रकुमार पगारिया १ २ संदर्भ गाथा - १६७/१६८ संदर्भ गाथा - १६९/१७०
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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