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________________ 29 भावों को जानने वाला मनः पर्यवज्ञान साकारोपयोग कहलाता है। इसे मनःपर्याय और मन:पर्यय भी कहते हैं। ५) केवलज्ञान साकारोपयोग - मति आदि ज्ञानों के सहायता के बिना भूत, भविष्य और वर्तमान तथा तीनों लोगवर्ती समस्त पदार्थों को विषय करनेवाला केवलज्ञान साकारोपयोग है। इसका विषय अनन्त है। ६) ७) ८) मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान जब मिथ्यात्व मोहनीय से संयुक्त हो जाते हैं उस अवस्था में वे अनुक्रम से अज्ञान बन जाते हैं। अतः ये मति अज्ञान साकारोपयोग, श्रुत अज्ञान साकारोपयोग और विभंग ज्ञान साकारोपयोग कहलाते हैं। अनाकारोपयोग के चार भेद हैं। १) चक्षुदर्शन अनाकारोपयोग - आँख द्वारा पदार्थों का जो सामान्य ज्ञान होता है उसे चक्षुदर्शन अनाकारोपयोग कहते हैं। २) अचक्षुदर्शन अनाकारोपयोग - चक्षु इन्द्रिय को छोडकर शेष चारों इन्द्रियों और मन के द्वारा होनेवाला पदार्थों का सामान्य ज्ञान अचक्षुदर्शन अनाकारोपयोग है। ३) अवधिदर्शन अनाकारोपयोग- मर्यादित क्षेत्र में रूपी द्रव्यों का सामान्य ज्ञान अवधिदर्शन अनकारोपयोग है। ४) केवलदर्शन अनाकारोपयोग - दूसरे ज्ञान की अपेक्षा बिना सम्पूर्ण संसार के पदार्थों का सामान्य ज्ञान रूप दर्शन अनाकार उपयोग कहलाता है। पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय में सभी उपयोग पाये जाते हैं। पर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा पर्याप्त असंज्ञि पंचेन्द्रिय में चक्षु-अचक्षु दो दर्शन और मति, श्रुत दो अज्ञान कुल चार उपयोग होते हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय ये चारों पर्याप्त तथा अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा अपर्याप्त असंज्ञि पंचेन्द्रिय इन दस प्रकार के जीवों में मति, अज्ञान, श्रुत अज्ञान और अचक्षुदर्शन ये तीन उपयोग होते है। अपर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रियों में मनःपर्यायज्ञान, चक्षुदर्शन, केवलदर्शन, केवलज्ञान इन चार को छोडकर शेष आठ- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि दर्शन, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंग ज्ञान और अचक्षु दर्शन- उपयोग होते हैं । इसके पश्चात् ध्याता शरीर का चिन्तन करें (५) शरीर- ५ जो उत्पत्ति समय से लेकर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता रहता है तथा शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होता है वह शरीर है। इसके पाँच प्रकार हैं (१) औदारिक शरीर, (२) वैक्रिय शरीर ( ३ ) आहारक शरीर (४) तैजस शरीर (५) कार्मण शरीर । १) औदारिक- उदार अर्थात् प्रधान अथवा स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक है। तीर्थंकर, गणधरादि का शरीर प्रधान पुद्गलों से बनता है और सर्वसाधारण का शरीर स्थूल और असार पुद्गलों से बना हुआ होता है। अथवा अन्य शरीरों की अपेक्षा अवस्थित रूप से विशाल अर्थात् बडे परिमाण वाला होने से यह औदारिक शरीर कहा जाता है। वनस्पति काय की अपेक्षा औदारिक शरीर की एक सहस्र योजन की अवस्थित अवगाहना इससे कम है। वैक्रिय शरीर की उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा अनवस्थित अवगाहना लाख योजन की है। परन्तु भवधारणीय वैक्रिय शरीर की अवगाहना तो पाँच सौ धनुष से अधिक नहीं है। अथवाअन्य शरीरों की अपेक्षा अल्पप्रदेश वाला तथा परिणाम में बड़ा होने से यह औदारिक शरीर कहलाता है। अथवा- मांस, रुधिर, अस्थि आदि धातुओं से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है। औदारिक शरीर मनुष्य १ संदर्भ-गाथा - २२
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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