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________________ मन:स्थिरीकरणप्रकरणम् १४१ .............................. .................... .. चउ दुगे दुगे चउ। गेविज्जाइसु दसगं, छावट्टी उड्डलोगम्मि।।६७।। सोहम्मपढमपयरे, परमाउं अयरतेरसं सदुगं। उवरि दु दु भागवुड्डी, जा अयरदुगंतिमे पयरे।।६८।। एवं चिय ईसाणे, नवरं सच्चत्थ किंचि अहियत्तं। भणियव्वं तह कुणसू, उवरिमकप्पेसु करणमिणं।।६८।। सुरकप्पट्टिइविसेसो, सगपयरविहत्त इत्थ संगुणिओ। हिट्ठिल्लट्ठिइसहिओ, इच्छियपयरंमि उक्कोसा।।६९।। केनचित्पृष्टं तृतीयकल्पाष्टमप्रतरे कियती गुरुस्थितिरिति? अत्र करणम्- सुरकप्प गाहा। प्रथमं सुरकल्पयोः स्थितिर्विश्लेष(स्थितेर्विश्लेषः) क्रियते। एतदुक्तं भवति-तृतीयकल्पस्य सागरसप्तकरूपाया गुरुस्थितेर्मध्यादधस्तनकल्पस्थितिः सागरद्वयमपह्रियते ततः स्थितानि पञ्चसागराणि। तानि च स्वकैः द्वादशभिः प्रतरैर्विभज्यन्ते। ततो लब्धं सागरस्य द्वादशतमाः पञ्चभागाः। ते चेच्छया विवक्षितप्रतरसङ्ख्याष्टकरूपया गुण्यन्ते। [आयाता चत्वारिंशत्। षट्त्रिंशता रूपत्रयं कृतं भागचतुष्कं चावशिष्यते। ततोऽतरत्रयमधस्तनकल्पस्थित्यतरद्वयेन सहितं क्रियते। तत आगतं तृतीयकल्पाष्टमप्रतरे सागर पञ्चकं भागचतुष्टयं चोत्कृष्टा स्थितिः। प्रत्ययश्चात्र अवशिष्टप्रतरचतुष्टयमपि विंशतिभागान् लभते। ततस्तैः पूर्वेश्चतुर्भिः सागरद्वये कृते सप्तातराणि भवन्तीति। एवं सर्वेष्वपि प्रश्नेषु(प्रतरेषु?) करणं विधेयम्। उवरुवरि पयरगरुयं, अहोहपयरेसु होइ लहुनिरए। इह पुण अहकप्प गुरु, उवरिमकप्पे लहू सयले।।७०।। कब्बिससुहम्मीसाणे, तितुरियकप्पेसु लंतए य कमा। पढमतिचउपयरेसु, तिपलियसारतिगतेराऊ।।७१।। अनिरयचउपंचभवो, जमालि लंतमि तेरसाराऊ। किब्बिसिवियार भगवइ, नवसयतेतीस उद्देसे।।७२।। सोहम्मे ईसाणे, परिगहियाणं सुरीण लहुमाउं। पल्लं समहियपल्लं, सत्त य नवपल्ल उक्कोसं।।७२।। छलक्खा सोहम्मे, चउरो लक्खा विमान ईसाणे। केवल सुरीण वासा, अपरिग्गहियाण ताण उणो।।७३।। पलियाउ जा सुहम्मे, समहियपल्लाउ जा उ ईसाणे। नियनियकप्पसुराणं, अनियइचारेण ता भुजा।।७४।। जा पुण सुहमे पल्लुवरि, अहियपल्लोवरिं तु ईसाणे। अहियाऊ इगदुतिचउ, संखमसंखेहिं समएहिं।।७५।। जा दस पनरस पल्ला, ता कमसो तइयतुरियकप्पाणं। पुव्वुत्तवुड्ढि पुणरवि, जा वीसं पल्लपणवीसं।।७६।। ता बंभलंतयाणं, पुण बुड्ढि जा बतीसपणतीसं। ता सुक्कसहस्सारे, उवरिं पुव्वुत्त पुण वुड्डी।।७७।। जा चत्ता पणचत्ता, ता आणयपाणयाण पुण वुड्डी। जा पन्ना पणपन्ना, ता आरण अच्चुयाणं तु।।७८।। बंभे रिटे अट्ठण्ह, कण्हराईण अंतरालेसु। अट्ठसागराऊ, नवविहलोगंतिया देवा।।७९।। इय धम्मसूरिसुगुरूवएसओ सिरिमहिंदसूरीहिं। कइवयथूलपयाऊ, संकलियं बारचुलसीए।।८०।। ।। आउसंगहो समत्तो।।
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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