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परिशिष्ट-५
आचार्यश्रीसोमसुन्दरसूरिकृत
॥ मन:स्थिरीकरणविचार ।।
॥ ॐ नमो वीतरागाय।।
वीरं गुरुश्च नत्वा श्री सोमसुन्दरसूरिभिः। वार्ताभिरेव लिख्यन्ते विचाराः केचिदागमात्।।
पृथ्वी १ अप २ तेउ ३ वाउ ४ वनस्पति ५ बेंद्रिय ६ चेंद्रिय ७ चउरिंद्रिय ८ असंज्ञिआ तिर्यंचपंचेंद्रिय ९ संजिया तिर्यंचपंचेंद्रिय १० मनष्य ११ नारकी १२ देव १३ एहे तेरे स्थानके जीवस्थानादिक विचार लिखीइं छई।
तत्र प्रथमं जीवस्थानकविचारः। यथा- जीवस्थानक कहीइं जीवना भेद ते १४ कहीइं। एकेंद्रियना बि भेद जे सघले जगी छई। दृष्टिगोचरि नावई ते सूक्ष्म कहीइं। १ जे पृथिव्यादिक दृष्टिगोचरि आवइं ते बादर कहीइं। तथा बेंद्रिय ३ चेंद्रिय ४ चउरिद्रिय ५। पंचेंद्रिय ना बिं भेद जे गर्भज जेहनइ मन हुई ते संज्ञिया कहीइं। जे (सं)मूर्छिम पंचेंद्रिय जेहनइ मन न हुई ते असंज्ञिया कहीइं। ७ ए सातइ जीवना भेद पर्याप्त हुई। जे पूरा शरीरादिक करी आऊखू पूरी मरइं ते पर्याप्ता। जे अपूरे मरइ ते अपर्याप्ता कहीइं। ए जीवना १४ भेद।
ए पृथिव्यप्कायादिक १३ स्थानके विचारीइं छइं। जीवना भेद पृथ्वीकायमांहि ४ हुई। सूक्ष्मपृथ्वीकाय अपर्याप्त १, सूक्ष्मपृथ्वीकाय पर्याप्त २, बादरपृथ्वीकाय अपर्याप्त ३, बादरपृथ्वीकाय पर्याप्त ४। इम अप्-तेउवायु-वनस्पतिकायइमांहि एह च्यारिजि च्यारि भेद जाणिवा। बेंद्रिय केंद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेंद्रिय मांहि असंनीया पंचेंद्रिय बिबिद(भिद) ए पर्याप्तउ अनइ अपर्याप्तछ(उ)। मनुष्यमांहि जीवभेद त्रिणि-एक मनुष्य पर्याप्ता १ एकि अपर्याप्ता २ अनइ निरोधादिकमांहि जे मनुष्य ऊपजई ते असंज्ञिया अपर्याप्ताइजि मरई ३ एवं भेद ३। तथा नारकी अनइं देवमांहि बिहइ ज भेद ऊपजवानी वेलाई अपर्याप्ता १ पच्छइ पर्याप्ता २। इम १३ स्थानके जीवस्थानकि विचारियां।१
अथ गुणस्थानकविचारः। जे श्रीजिनधर्मनउं जाणिवू तेह ऊपरि अरुचि ते मिथ्यात्व गुणठाणउं कहीइं १।
अनंतनुबंधियां कषायनइ उदयि सम्यक्त्व वमतां एक समय अथवा छआवली प्रमाण सास्वादन सम्यक्त्व बीजउं गुणठाणउं कहीइ। जिम को एक क्षीरखांड जिमीअनइ ते वमतां काईलगार आस्वाद जाणइं तेह तउ पछइ मिथ्यात्विइंजि जाइ २।
जिनधर्म उपरि रागद्वेषइ नही जीणइं परिणामिइं ते मिश्र गुणठाणउं कहीइं। जिम नालिकेर द्वीपवासी मनुष्य हई जन्मा पूर्व अन्नऊपरि क्षण एक रागद्वेषइ नही जीणइ अणोलवीत(?) भणी ३।
चउथउं अविरत गुणठाणउं जेह हुई विरति पाखइ केवलउं सम्यक्त्व हुई ते ईणइ गुणठाणई वर्तई ४। जेह हुइं सम्यक्त्व सहित व्रत हुई तेह हुई देशविरति गुणठाणउं कहीइ ५। जे निद्रादिप्रमादसहित चारित्र ते प्रमत्त गुणठाणउं ६। प्रमाद रहित चारित्र ते अप्रमत्त गुणठाणउं ७।