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परिचय
जैन दर्शन निरीश्वरवादी है। विश्व की व्यवस्था में ईश्वरवादी दर्शनों ने जो स्थान ईश्वर को दिया है वह स्थान जैन दर्शन ने कर्म को दिया है। वैदिक ईश्वरवादी दर्शनों ने ईश्वर के विषय में जितना विचार किया है उससे अधिक जैन दर्शन ने कर्म का विचार किया है। समग्र जैन साहित्य में आगम के बाद सबसे विस्तृत कर्मसाहित्य ही है। मनःस्थिरीकरण प्रकरण नामक प्रस्तुत कृति का समावेश कर्मसाहित्य में होता है।
मनःस्थिरीकरण प्रकरण इस नाम के कारण यह ग्रंथ योगप्रधान प्रतीत होता है, किंतु ग्रंथ का प्रधान वाच्य कर्मग्रंथ में वर्णित विषय ही है अतः यह ग्रंथ कर्मसाहित्य से संबद्ध है । द्रव्यानुयोग की तरह गणितानुयोग से भी ध्यान के द्वारा मन की स्थिरता प्राप्त होती है इसलिये इस ग्रंथ की विषयवस्तु मनःस्थिरता का परम साधन होने से ग्रंथकार ने प्रस्तुत प्रकरण का मनःस्थिरीकरण प्रकरण ऐसा सान्वर्थ नामाभिधान किया है।
ग्रंथकार
भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा है संत संस्कृति । जो संतों की साधना-आराधना से ही अंकुरित पल्लवित, पुष्पित और फलित हुई है। वस्तुतः संतों की महिमाशालिनी चर्या और वाणी का इतिहास ही भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का इतिहास है । अतीत के अगणित संत महात्माओं की जीवनी आज भी प्रेरणा का अजस्र प्रखर स्रोत है। ऐसे ही थे श्रमण संस्कृति की गौरवमयी अंचलगच्छ की परम्परा के महान संत आचार्य श्री महेन्द्रसिंहसूरीश्वरजी महाराज । ये प्रखर चिंतक, प्रौढ वक्ता एवं कुशल साहित्यकार थे।
इनका जन्म मरुदेशान्तर्गत सरानगर में श्रीमाल ज्ञातीय देवप्रसाद की पत्नी क्षीरदेवी के उदर से सं. १२२८ में हुआ। जन्म नाम महेन्द्रकुमार था। दीक्षा के पश्चात् ये महेन्द्रसिंहसूरि के नाम से विख्यात हुए । श्री मेरुतुंगसूरि की पट्टावली में ये औदिच्य ब्राह्मण पण्डित देवप्रसाद के पुत्र थे। कहा जाता है कि आचार्य धर्मघोषसूरि ने नागड गोत्रीय रुणा श्रेष्ठी के आग्रह से सरानगर में चातुर्मास किया। पण्डित देवप्रसाद उन दिनों मुनियों को व्याकरण पढा रहे थे। महेन्द्रकुमार की बालसुलभ क्रीडा से आचार्य श्री धर्मघोषसूरि बडे प्रभावित थे। यदा कदा वह आचार्यश्री की गोद में बैठ जाता और अपनी मधुर एवं आनन्दप्रद वाणी से आचार्य एवं अन्य मुनियों का मनोरंजन करता। बालक की प्रतिभा एवं उसके उज्ज्वल भविष्य को देखकर आचार्यश्री ने पण्डित देवप्रसाद से बालक की याचना की। पण्डित देवप्रसाद ने प्रसन्नतापूर्वक बालक को आचार्यश्री के चरणों में रख दिया। पं. देवप्रसाद का एवं पत्नी क्षीरदेवी का संघ ने खूब सन्मान किया ।
अंचलगच्छदिग्दर्शन के अनुसार महेन्द्रकुमार ब्राह्मणपुत्र नहीं किन्तु श्रेष्ठीपुत्र था। बालक जब नौ वर्ष का हुआ तब वि.सं. १२३७ में खम्भात में बडे उत्सवपूर्वक आचार्य धर्मघोषसूरि ने उसे दीक्षा दी। अल्पकाल में ही ये संस्कृत-प्राकृत भाषा के प्रखर विद्वान् बने। उनकी प्रतिभा से प्रभावित हो उन्हें वि.सं. १२५७ में उपाध्याय के पद से विभूषित किया। सं. १२६३ में इन्हें आचार्य पद प्रदान किया। ये वाड्मिता के अनन्यतम धनी थे। उनकी वाणी में श्रोताओं को उद्वेलित कर देने वाली चुम्बकीय शक्ति थी। गहरे पैठ जानेवाली उपदेशात्मक प्रवृत्तियों से अभिप्रेरित हो कर उन्होंने अज्ञानियों, अशिक्षितों, भूले-भटकों, संशयग्रस्तों के मन में सच्चरित्रता और निष्ठा का अखण्ड दीपक प्रदीप्त किया। कच्छ, गुजरात एवं राजस्थान के अधिकांश जनपदों का विहार करके जनता जनार्दन में आध्यात्मिक चेतना जागृत की। आपके उपदेश से अनेक श्रेष्ठियों ने लाखों