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परिशिष्ट-१
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सामित्ते करणम्मि य अहिगरणे चेव होंति छन्भेया । एगत्तपुहुत्तेहिं दव्वे खेत्तऽद्धभावे य ॥५६॥ (देही) कालो समयादीओ पगयं समयम्मि तं परूवेस्सं । निक्खमणे य पवेसे, पाउस-सरए य वोच्छामि ॥५७॥ (गौरी) ऊणाइरित्त मासे अट्ठ विहरिऊण गिम्हहेमंते । एगाहं पंचाहं मासं च जहा समाहीए ॥५८॥ (विद्या) काऊण मासकप्पं तत्थेव उवागयाण ऊणा ते । चिक्खल्ल-वास-रोहेण वावि तेण ट्ठिया ऊणा ॥५९॥ (विद्या)
स्वामित्वे करणे चाधिकरणे चैव भवन्ति षड्भेदाः । एकत्वपृथक्त्वाभ्यां द्रव्ये क्षेत्रकालभावेषु च ॥५६॥ कालः समयादिकः प्रकृतं समये तत्प्ररूपयिष्यामि । निष्क्रमणे च प्रवेशे प्रावृट्-शरदोः च वक्ष्यामि ॥५७॥ ऊनातिरिक्तमासान्, अष्टौ विहृत्य ग्रीष्महेमन्तयोः । एकाहं पञ्चाहं मासं च यथासमाधिना ॥५८॥ कृत्वा मासकल्पं तत्रैवोपागतानामूना ते । कर्दमवर्षारोधेन वापि तेन स्थिता न्यूनाः ॥५९॥
एकत्व एवं पृथक्त्व के आधार पर द्रव्य के स्वामित्व, करण और अधिकरण की दृष्टि से छ: भेद होते हैं, इसी प्रकार क्षेत्र, काल और भाव के भेदों के विषय में (कथन करना चाहिए) ॥५६॥
प्रस्तुत समय अधिकार में उस काल अर्थात् समयादिक का निरूपण करूँगा, 'ऋतुबद्ध क्षेत्र से वर्षा ऋतु में', और शरद ऋतु में यह कहता हूँ ॥५७।।
ग्रीष्म (के चार मास) और हेमन्त (शीतऋतु के चार मास) में अर्थात् आठ माह से कम या अधिक विहार करना चाहिए । यह विहार आठ महीने से एक दिन, पाँच दिन और मास पर्यन्त जिस प्रकार कम या अधिक होता है (उसे कहता हूँ ) ॥५८॥
एक मास (आषाढ मास) का कल्प वास कर (वर्षावास के लिए योग्य स्थान न मिलने पर) उसी स्थान पर वर्षावास करना यह (आठ मास से) कम विहार है । कीचड़ बरसात अथवा नगरादि के घेरे के कारण भी वही वास करने से (आठ माह से) कम विहार है ॥५९॥