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कल्पनियुक्तिः
पज्जोसमणाए अक्खराइं होंति उ इमाइ गोण्णाई । परियायववत्थवणा पज्जोसमणा य पागइया ॥५२॥ (उद्गाथा) परिवसणा पज्जुसणा पज्जोसवणा य वासवासो वा । पढमसमोसरणं ति य ठवणा जेट्ठोग्गहेगट्ठा ॥५३॥ (चूर्णा) ठवणाए निक्खेवो छक्को दव्वं च दव्वनिक्खेवो । खेत्तं तु जम्मि खेत्ते काले कालो जहिं जो उ ॥५४॥ (लज्जा) ओदइयाईयाणं भावाणं जा जहिं भवे ठवणा । भावेण जेण य पुणो ठविज्जए भावठवणा उ ॥५५॥ (देही)
पर्युपशमनायाः अक्षराणि भवन्ति तु इमानि गौणानि । पर्यायव्यवस्थापना पर्युपशमना च प्राकृतिका ॥५२॥ परिवसना, पर्युषणा, पर्युपशमना, च वर्षावासश्च । प्रथमसमवसरणमिति च स्थापना ज्येष्ठावग्रह एकार्थाः ॥५३॥ स्थापनायाः निक्षेपः षट्कः द्रव्यं च द्रव्यनिक्षेपः । क्षेत्रं तु यस्मिन् क्षेत्रे काले कालो यस्मिन् यस्तु ॥५४॥ औदयिकादिकानां भावानां या यत्र भवेत् स्थापना । भावेन येन च पुनः स्थाप्यते भावस्थापना तु ॥५५॥
पर्युपशमना ये अक्षरादि तो गुण-निष्पन्न होते हैं, श्रमणों की पर्यायव्यवस्थापना पर्युपशमना से व्यक्त होती है ॥५२॥
परिवसना-चारमास तक एक स्थान पर रहना, पर्युषणा–किसी भी दिशा में परिभ्रमण नहीं करना, पर्युपशमना-कषायों से सर्वथा उपशान्त रहना, वर्षावास-वर्षाकाल में चार मास तक एक स्थान पर रहना, प्रथम समवसरण-नियत वर्षावास क्षेत्र में प्रथम आगमन, स्थापना वर्षावास के क्रम में ऋतुबद्ध काल के अतिरिक्त काल की मर्यादा स्थापित करना और ज्येष्ठावग्रह-चार मास तक एक क्षेत्र का उत्तम आश्रय आदि–इनमें व्यञ्जनों का अन्तर है अर्थभेद नहीं है ॥५३॥
(पर्युषणावाची उपरोक्त शब्दों में से स्थापना का निक्षेप दृष्टि से कथन)-स्थापना निक्षेप छ: प्रकार का होता है (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्वामित्व एवं करण), द्रव्य-स्थापनानिक्षेप (अर्थात् पर्युषण करने वाले का द्रव्य शरीर और उसके द्वारा उपभोग योग्य एवं त्याज्य अचित-सचित्तादि) द्रव्य, क्षेत्र (स्थापना-निक्षेप), जिस क्षेत्र में स्थापना (पर्युषणा की जाती है) और काल (स्थापना-निक्षेप) जिस काल में स्थापना की जाती है ॥५४॥
औदयिक आदि भावों की जिस में स्थापना की जाती है या भाव से स्थापना की जाती है, वह भाव स्थापना-पर्युषणा है ॥५५।।