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प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के शासन में पर्युषणा कल्प होता है। पर्युषणा में मंगल निमित्त प्रथम-अंतिम तीर्थंकर और शेष बाईस तीर्थकर के आचारधर्म का वाचन होता है । जिन, गणधर और स्थविरों के चरित्र का भी वाचन होता है ।
कल्पसूत्र के २६३ वें सूत्र में वर्षा में आहार ग्रहण करने की विधि बताई है । नियुक्ति ११४ में इसीका विवरण है । भीतरी वस्त्र गीला करके शरीर को भिगो दे ऐसी बारिस में साधु आहार ग्रहण करने के लिये नहीं जाते । अपवाद से ज्ञानार्थी, तपस्वी और क्षुधा के असहु साधु के लिये अनुमत है । साधु ऐसे क्षेत्र में हो जहाँ पर संयम के उपकरण और वर्षा में पहनने योग्य ऊन का वस्त्र दुर्लभ है, वहाँ उत्तरकरण करना चाहिये । उत्तरकरण इस प्रकार होता है। सबसे पहले वर्षा में जाने के लिये वालज वस्त्र का उपयोग करना चाहिये । वे तीन प्रकार के होते हैं । ऊन का, ऊमट (उट) के बाल का, कुतप (चूहे के बाल) का । वालज वस्त्र के अभाव में घास से बने हुए वस्त्र का उपयोग करना चाहिये । उसके अभाव में छत्र का उपयोग करना चाहिये । उत्तरकरण आपवादिक संयोग में ही होता है ।२
यह पर्युषणाकल्पनियुक्ति की संक्षेप में विषयवस्तु है ।
१. सन्दर्भ-क.नि. ६१ । २. सन्दर्भ-क.नि. ६२-६६ ।