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अस्तरा आदि से केश कर्तन करने की आज्ञा है । लोच का मतलब है, 'अपने हाथ से मस्तक, दाढी, मूछ के बाल उखाड़ना ।' इन तीन अवयव से अतिरिक्त स्थानों के बाल का लोच नहीं करते ।
६. सचित्त-सचित्त से मतलब है, सचित्त भिक्षा अर्थात् शिष्य । चातुर्मास में दीक्षा निषिद्ध है । अपवाद से पूर्व परिचित, भावित और संविग्न गृहस्थ को दीक्षा की अनुमति है । अपरिचित, अभावित और असंविग्न गृहस्थ को दीक्षा देने से वह निघृण हो जाने की सम्भावना है । भोजनादि विधि का एवं रात में शरीरबाधा का त्याग किस तरह किया जाता है, इसका ख्याल न होने से उसका उपहास हो सकता है ।२
सातवें अचित्त द्वार के विषय में नियुक्ति मौन है । प्राचीन चूर्णि के अनुसार ऋतुबद्ध काल में लिये गये उपकरणादि का त्याग और नये रक्षा (राख) लेप आदि का ग्रहण करना चाहिए ।
इस प्रकार काल-स्थापना सम्बन्धित सात द्वारों का विवरण करके नियुक्तिकार पर्युषण की भाव-स्थापना का निर्देश करते हैं ।
चातुर्मास में (१) समिति के पालन में उपयुक्त रहना चाहिये । (२) मन-वचन-काया को गुप्ति में रखना चाहिये । (३) दुष्कृत की आलोचना करनी चाहिये । (४) अधिकरण (झगड़ा) एवं कषायों का त्याग करना चाहिये ।३ अधिकरण त्याग के विषय में दुरूतक, चण्डप्रद्योत और द्रमक के दृष्टान्त प्रस्तुत किये हैं।
कषाय त्याग के विषय में चार कषाय के अनंतानुबन्धि आदि चार प्रकार को सोदाहरण प्रस्तुत किये हैं । क्रोध के विषय में बटु, मान के विषय में अच्चंकारि आर्या, माया के विषय में पाण्डु आर्या तथा लोभ के विषय में आचार्य मंगु के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं ।।
कषाय की आलोचना न करने से भारी नुकसान होता है, अतः चातुर्मास में कषाय हो जाय तो तुरन्त प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये । चातुर्मास में जीवोत्पत्ति अधिक होती है, अत: विराधना का त्याग करना चाहिये । एक जगह संलीनता से रहना चाहिये । स्वाध्याय, संयम
और तप में आत्मा को जोड़ देना चाहिये ।६ इन उदाहरणों को परिशिष्ट-७ में प्रस्तुत किया गया है।
१. सन्दर्भ-क.नि. ३३ । २. सन्दर्भ-क.नि. ३४ । ३. सन्दर्भ-क.नि. ३५-३७ । ४. सन्दर्भक.नि. ३८-४६ । ५. सन्दर्भ-क.नि. ४७-५९ । ६. सन्दर्भ-क.नि. ६० ।