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पकवान बनाया थाल भराया, रसना इन्द्रिय को सुखदाय । क्षुधा रोग तत्काल हनन को पद पंकज में छोडू आय।। श्री सुपाठक परम् मुनीश्वर ध्यावे मन वच काय लगाया। ज्ञान भरो मम उर के मांही याते मैं पूजूं तुम पाय।।
ऊँ ह्रीं श्री पंचविंशति मूल गुण प्रतिपालकोपाध्याय देवेभ्यः क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।। 5॥
जगमग जगमग होत उजालो, कनकथाल में दीपक जो ।
मोह तिमिर नाशे दुखदाई, आतम ज्ञान जगावो मोय।। श्री सुपाठक परम् मुनीश्वर ध्यावे मन वच काय लगाय। ज्ञान भरो मम उर के मांही याते मैं पूजूं तुम पाय।।
ऊँ ह्रीं श्री पंचविंशति मूल गुण प्रतिपालकोपाध्याय देवेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।।6।।
अगर तगर चन्दन का चूरा, और अनेकों द्रव्य मंगाय। धूप बनाकर खेय अग्नि में अष्ट कम नाशे दुखदाय।।
श्री सुपाठक परम् मुनीश्वर ध्यावे मन वच काय लगाय।
ज्ञान भरो मम उर के मांही याते मैं पूजूं तुम पाय।।
ऊँ ह्रीं श्री पंचविंशति मूल गुण प्रतिपालकोपाध्याय देवेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति
स्वाहा॥7॥
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