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ऊँ ह्रीं श्री पंचविंशति मूल गुण प्रतिपालकोपाध्याय देवेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं
निर्वपामीति स्वाहा।।॥
गोशीर सुगन्धित ले कर्पुरो, केसर संगमें घिसु मनलाय। संसृति ताप मिटावन कारण चरण चढाउं बहु हर्षाय।। श्री सुपाठक परम् मुनीश्वर ध्यावे मन वच काय लगाय।
ज्ञान भरो मम उर के मांही याते मैं पूजू तुम पाय।। ऊँ ह्रीं श्री पंचविंशति मूल गुण प्रतिपालकोपाध्याय देवेभ्योः संसारताप विनाशनाय चंदनं
निर्वपामीति स्वाहा।।2॥
चन्द्रकिरण सम उज्ज्वल अक्षत खंड विवर्जित धोकर लाय।
पुंज करे हम पद पंकज में अक्षय निधि पावे सुखदाय।। श्री सुपाठक परम् मुनीश्वर ध्यावे मन वच काय लगाय।
ज्ञान भरो मम उर के मांही याते मैं पूजूं तुम पाय।। ॐ ह्रीं श्री पंचविंशति मूल गुण प्रतिपालकोपाध्याय देवेभ्योः अक्षय पद प्राप्तये अक्षतानद्य
निर्वपामीति स्वाहा॥3॥
जुई चमेली वकुल केवड़ा, मरुवा दोना फूल मंगाय। चरण चढ़ावे मन हर्षा कर कामबाण मम तुरत नशाय।। श्री सुपाठक परम् मुनीश्वर ध्यावे मन वच काय लगाय।
ज्ञान भरो मम उर के मांही याते मैं पूजूं तुम पाय।। ऊँ ह्रीं श्री पंचविंशति मूल गुण प्रतिपालकोपाध्याय देवेभ्यः काम वाणं विनाशनाय पुष्पं
निर्वपामीति स्वाहा।।।4।।
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