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सूरजमल तब चरणों में जाय, कर नमस्कार भव दुख नशाय।।13।
घत्ता
जय सूरि महन्ता गुणगण सन्ता ध्यान धरन्ता ज्ञानी हो।
जय भव भय भंजन आतम रंजन दुरित विभंजन ध्यानी हो।। ऊँ ह्रीं षट्-त्रिंशद् मूलगुण प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥14॥
दोहा
ध्यान धरे आचार्य का, जो प्राणी सुखदाय। करे कर्म की निर्जरा, अनुक्रम से शिव पाय।।
(इत्याशीर्वाद)
श्री उपाध्याय परमेष्ठि पूजा (गीता)
पूज्य हो परमेष्ठि चौथे ध्याय पाठक राज जी। पालते गुण पंचविंशति हो मुनि सिरताजजी। आव्हान हो गुरु आपका उर थापना हम कर रहे।सब हमारे दुरित मेटो ध्यान तब मन धर रहे। ऊँ ह्रीं पंचविंशति गुणोपेतोपाध्याय परमेष्ठिन् अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननम्।
ऊँ ह्रीं पंचविंशति गुणोपेतोपाध्याय परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं पंचविंशति गुणोपेतोपाध्याय परमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्।
अथाष्टकं (त्रिभंगी)
गंगा नदी का जल अति उत्तम झार लेकर मैं भरलाय। धार देऊं मैं श्री गुरुवर पद जन्म जरामृति दूर भगाय।। श्री सुपाठक परम् मुनीश्वर ध्यावे मन वच काय लगाय। ज्ञान भरो मम उर के मांही याते मैं पूजूं तुम पाय।।
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