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तप तपे विधि द्वादश जानिए कर्महनि फिर शिवपुर ठानिए।
होय तप आचार सुजानिए, पूज आचारज पद मानिए।। ऊँ ह्रीं तपाचार प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
(अडिल्ल)
ज्ञान दर्श चारित्र वीर्य तप आचरे, ये ही पंचाचार कहे सुख कार रे। पाले इनको सूरि महा गुणवान जी, पूजे मन वच काय हर्ष उर आनजी।।
होय ज्ञानाचार सु जानिए, पूज आचाराज पद मानिए।। ऊँ ह्रीं पंचाचार चारित्र प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुप्ति अर्घ (राधेश्याम्)
मन अति चंचल बस कर जग को इधर उधर दौड़ाता है।
याते आतम ध्यान न पावे मोक्ष मार्ग नहीं पाता है।। धन्य धन्य गुरु आप जगत में मन को बस में कीना है।
ध्यान धरत हो निज आतम का मोक्ष पन्थ को लीना है।। ऊँ ह्रीं श्री मनोगुप्ति प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।।
वचन बोलते हित मित मीठे कभी नहीं परमाद वहै।
ऐसी भाषा कबहु न भाषे याते प्राणी पाप गहै।। धन्य धन्य गुरु आप जगत में मन को बस में कीना है।
ध्यान धरत हो निज आतम का मोक्ष पन्थ को लीना है।। ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्ति प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
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