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षढावश्यक अध्य (सखी)
सब जीव विषे सम भावा, दुर्ध्यानन मन में लावा।
करते सामायिक सुखदाई, अर्यु सूरि पद हर्षाई।। ऊँ ह्रीं सामायिकावश्यक प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।।।
चतुबीस जिनेश्वर जो हैं, अरुपंच परम गुरु सो है।।
तिन करहुं स्तुति गुणगाई अति निर्मल भाव लगाई।। ऊँ ह्रीं स्तवनावश्यक प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
बन्दन देव करे जिन थाना, सबदोष रहित गुण नाना।
नाशे पाप महा दुख दाई, सब अर्घ यजोरे भाई।। ऊँ ह्रीं बंदनावश्यक प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।3॥
मनवचकाय लगे जो दोषा, अहोरात रहे मन सदोषा।
ता आलोचन उर लाई, वह होवे प्रतिक्रम भाई।। ऊँ ह्रीं बंदनावश्यक प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
मनवच कायसु वस्तु त्यागे, नाही रोष करे बड़ भागे।
उस प्रत्याख्यान बताई, सूरि नित्य करे सुखदाई। ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावश्यक प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।5।
छोड़ा मोहप्रबल तन सोई, आतमध्यान धरे निज जोई।
कायोत्सर्ग कहे भगवाना सूरि राज करे गुणवाना।। ऊँ ह्रीं कायोत्सर्गावश्यक प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।6।
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