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जिनके विमल मुखचन्द्र से, अम्मृत वचन अनुपम झरें।
त्रैलोक्य की सम्पत्तियाँ, प्रभु के पुजारी को वरें।। तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना।
श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।60॥ ओं ह्रीं वचनानन्दकरणसमर्थाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जिननाथ के तन की अलौकिक, दिव्य परमाणु-प्रभा। देखकर होती प्रफुल्लित, देव नर पशु की सभा।।
तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना।
श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।61॥ ओं ह्रीं कायानन्दकरणसमर्थाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वार्थवर्गों का प्रसाधक, नाथ मनसा चिन्तनम्। तीर्थेश की दिव्यार्चना का, है महत् अतिशय फलम्।। ___ तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना।।
श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।62॥ ओं ह्रीं अर्थवर्गसिद्धसाधनकरणसमर्थाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के गुणों का संस्तवन, निज वाणि-वीणा से करें।
वे काम-वर्ग-प्रसाधिनी, उत्कृष्ट महिमा को वरें।। तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना।
श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।63।। ओं ह्रीं कामवर्गसाधनकरणसमर्थाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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