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राजती बारह सभा जिन, समवसरणे सर्वदा। त्रैलोक्यपति की अर्चना से, प्राप्त होती सुखप्रदा।।
तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना।
श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।56॥ ओं ह्रीं समवसरणविभूतिपदप्रदाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भगवान को दिव्य-ध्वनी, दिनरात में चतुवार हो। जिननाथ पूजन से मिले, कैवल्य, बेड़ पार हो।। तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना।
श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।57॥ ओं ह्रीं सत्केवलज्ञानविभूषिपदप्रदाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टकर्मों से रहित, गुण अष्ट युत परमात्मा। निर्भय निरंजन सिद्धपद, पाता सुधी धर्मात्मा।। तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना। श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।58॥ ओं ह्रीं निरंजनपदप्रदाय श्री शान्तिनाथाय अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
चित्त को आनन्द देती, नाथ की दिव्यार्चना। सम्यक्त्या प्रभु के पुजारी, की करें सुर वन्दना।। तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना।
श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।59।। ओं ह्रीं चिदानन्दकरणसमर्थाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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