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पूज्य हो मात हम करत श्रद्धान को। पाप पुण्य नाश कर लहत शिव थान को।। मात जिन वाणि आप अगण्य जीव तारिया। मैं नमं त्रिकाल आप ज्ञान शुद्ध धारिया।।35।।
देव अरहन्त ने भासिया धर्म को। स्याद्वाद है वह नष्ट करें कर्म को।। धर्म देव पूजते अनन्त सुख पालिया। मैं नमूं त्रिकाल आप जन्म सफल कर लिया।।36।।
क्षमादि दश धर्म अरु रत्नत्रय जानिए। है अहिंस आदि धर्म भव्य पर मानिए। धर्म देव पूजते अनन्त सुख पालिया। मैं नमूं त्रिकाल आप जन्म सफल कर लिया।।37॥
धरत भव्य धर्म को होत कल्याण ही। है अगाध धर्म तत्व होत ना बखान ही। धर्म देव पूजते अनन्त सुख पालिया। मैं नमूं त्रिकाल आप जन्म सफल कर लिया।।38।। होत नव देव ये ग्रन्थ में गाइया। कहत “सूर्य मल्ल'' जिन चरण सिर नाइया।। नमत नव देव को हर्ष उर धारिया। करत पूज शुद्ध पाप सब जारिया।।39।
घत्ता-छन्द जय जय नव देवं, कर्म नशेवं, सुरकृत सेवं पुण्य करम। जय पूज रचावे गुण गण गावे, पाप मिटावें मुक्ति वरम।।40॥ ऊँ ह्रीं अरहन्तादि नव देवसमूहेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
गीता नव देव है ये वीतराग नाशते भव भय सदा। पुजहूँ वसु द्रव्य लेकर आदि व्याधि न हो कदा।।
पुत्र मित्ररु पौत्र वाढे स्वर्ग सम्पत्ति आय है। नष्ट होवे कर्म सारे मोक्ष नारी पाय है।।41॥
इत्याशीर्वादः
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