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________________ श्री अरहन्त पूजन जोगीरासा-स्थापना नाश घातिया कर्म आपने, पद पाया अरहन्ता । बैठ समवस्त दिव्य ध्वनि से तारे भव्य अन्नता। ऐसे उन त्रैलोक्य प्रभु का मन वच काय त्रियोगा। आव्हानन् ह्रदि स्थापन करके नाश करूं भव रोगा ।। ऊँ ह्रीं षट् चत्वारिंशद् गुणोपेत अरहन्त परमेष्ठिन् अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं षट् चत्वारिंशद् गुणोपेत अरहन्त परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं षट् चत्वारिंशद् गुणोपेत अरहन्त परमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। अथाष्टक (जोगीरासा) क्षीरोक्षधि को प्रासुक जल ले मन हर्षित भरलाया। जन्मजरामृति दूर करन को श्रीजिन चरण चढ़ाया। श्री अरहन्त सकल परमात्म केवल ज्ञानी राजै। होवे भव भव मांहि सहाई याते भव भय भाजे || ऊँ ह्रीं श्री चत्वारिंशद् गुणोपेत अरहन्त परमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा। मलयागिरि गोशीर सुगन्धित केशर संघ घिसलाऊं। लेप करूं अरहन्त प्रभुपद संसृति ताप मिटाऊं। श्री अरहन्त सकल परमात्म केवल ज्ञानी राजै। होवे भव भव मांहि सहाई याते भव भय भाजे।। ऊँ ह्रीं श्री चत्वारिंशद् गुणोपेत अरहन्त परमेष्ठिभ्यः संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 949
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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