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14. षट् आवश्यक भावना पूजा गीता छन्द
सामायिक स्तवन प्रतिक्रम, वन्दना मन लाइये। प्रत्याख्यान कायोत्सर्ग ले, षडावश्यक गाइये ॥ ये करें मुनिवर रोज निहचें अवशिके बिसरें नहीं। इहां थापि षडावश्यक शुभावन, पूजहों मन वच ठही ।।
ऊँ ह्रीं श्री षट्आवश्यकभावना ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
ऊँ ह्रीं श्री षट्आवश्यकभावना ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्री षट्आवश्यकभावना ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्।
(पद्धरि छन्द)
गंगाजल निर्मल गन्धधार, धरि रतनझारि लायो विचार । मनवचनकाय शुभभक्ति लाय, पूजों षट् आवशि शीश नाय ।। ऊँ ह्रीं श्री षडावश्यक भावनायै जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन घसि निर्मल नीर डार, धर सुभगपात्र में थुति उचार। जिनको षद या फल होय आय, पूजों षट् आवशि शीश नाय।। ऊँ ह्रीं श्री षडावश्यक भावनायै चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षय अखण्ड उज्ज्वल सुगन्ध, मुक्ताफल मानो धरे स्कन्ध। धर भक्तिभाव ले हाथ आय, पूजों षट् आवशि शीश नाय ।। ऊँ ह्रीं श्री षडावश्यक भावनायै अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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