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जिनकल्पी थिरकल्पी साध, और महा नर क्रिया समाधा
महाकल्प में या विधि कहो, ते अंग प्रवचन पूजों सही।। ऊँ ह्रीं महाकल्पसहितायै श्री प्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
चार प्रकार देव किम होय, तहां उपजन की तपविधि सोय।
पूजा दान आदि तँह जान, सो पुंडरीक जजों अंग मान।। ऊँ ह्रीं पुण्डीकांगबाह्यसहितायै श्री प्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्र अहमिंद्र होनको सही, तपश्चरण आदिक विधि कही।
महापुण्डरीक अंग सो जान, सो मैं जजों अध्य शुभ आन।। ॐ ह्रीं महापुण्डीकांगबाह्यसहितायै श्री प्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
क्रिया प्रमाद थकी अघ सोय, ताके नाश होन विधि जोय।
सो निषद्यका अंग में कही, सो मैं जजों भाव शुध सही।। ऊँ ह्रीं निषद्यकांगबाह्यसहितायै श्री प्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अंग पूर्व प्रकीर्णक भंग, जिन मुखतें उपजे सुभरंग।
सो सिद्धान्त जगत हितकार, सो मैं जजों दयो दधिसार।। ऊँ ह्रीं जिनमुखोत्पन्नप्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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