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तिर्यंच नारक भव कभी, जिन भक्त को मिलता नहीं। नर देव भव शुभ लोक में, पाते प्रभू के भक्त ही।।
तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना। श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।48॥ ओं ह्रीं नरकर्तिर्यग्गतिरहित नरसुरगतिसहित भवप्रदाय श्री शान्तिनाथाय
अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भावना षोडश विमल प्रभ, अर्चना से प्राप्त हों। तीर्थंकर पदवी मिले, जिससे कि निश्चय आप्त हो।।
तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना।
श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।49॥ ओं ह्रीं षोडशकारणभावनासाधनबलपदप्रदाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
लोकदुर्लभ स्वप्न सोलह, नाथ माता देखती। एकजननी पद प्रसव, निजपूज से अवलोकती।। तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना।
श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।50॥ ओं ह्रीं जिनजननीतुल्यैकजननीपदप्रदाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश वन सुरशैल पर, होता विशद अभिषेक है। जिन अर्चना का हृदय जिनके, प्रकट विमल विवेक है।।
तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना।
श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।51॥ ओं ह्रीं मेरुशिखरे स्नानयुक्तपदप्रदाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा
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