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________________ दो विधिपरिग्रहत्यागसु नगना, सोहि अकिंचनधर्मसु मगना। याको आचारज उर लावे, तिनपद फलैं शिव पावे।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमाकिंचन्यधर्मसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। मनवचतन नारी को त्यागे, सो वृष ब्रह्मचर्य भय भागे। याको करे आचारज सोई, तिनपद जजों फलैं शिव होई।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। ये दशधर्म कर्मक्षयकारी, इनतें जाय पापमय हारी। आचारज इस वृष को धारें, तिनपद जजों पापक्षय कारे।। ऊँ ह्रीं श्री दशधर्मसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। आरत रौद्र भाव का त्यागे, तब सामायिक में मन लागे। याको करे आचारज सोई, तिनपद जजों फलैसख होई।। ऊँ ह्रीं श्री सामायिकावश्यकसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। थुति अरिहन्तसिद्ध की कीजे, सो स्तवनावश्यक गिन लीजे। याको करे आचारज सोई, तिनपद जजों भलेसुख होई।। ऊँ ह्रीं श्री स्तवनावश्यकसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। बन्दन नमस्कार नति कीजे, अरिहन्तन को शीश नमीजे। याको करे आचारज सोई, तिनपद जजों फलै शिव होई।। ॐ ह्रीं श्री बंदनावश्यकसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 909
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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