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कुटिलाई जिनके नर नाँही, आर्जवभाव धरमहित ठाँही।
याको आचारज उर आने, तिनपद जजों फलैअघ हाने।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमार्जवधर्मसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
प्राण जांय पै असत न भाखे, सत्यधरम अपनो दिढ़ राखे।
याको आचारज उर आने, तिनपद जजों फलैअघ हाने।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमसत्यधर्मसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
परकी वस्तु चाह नहिं ताके, शौचभाव निर्मल उर जाके।
याको आचारज उर आने, तिनपद जजों फलैअघ हाने।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्मसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय कसे जीवको पाले, सो संयमवृष अघ को टाले।
याको आचारज उर आने, तिनपद जजों फलैअघ हाने।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्मसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशतप दोविध मन लाय, सो तपधर्म स्वर्ग शिवदाय।
याको करे आचारज सोही, तिनपद जजों रहोंनहिं मोही।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमतपौधर्मसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तन धनआदि वस्तु पर जेती, ममत नहीं दीसे तन सेती।
यो तप त्याग आचाराज धारें, तिनपद जजों फलै अघ हारे।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्मसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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