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लगे दोषको जो निरवारे, प्रतिक्रमण आवश्यक धारें।
याको करे आचारज सोई, तिनपद जजों फलै शिव होई।। ऊँ ह्रीं श्री प्रतिक्रमणावश्यकसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मन वच काय पाप विधि त्यागे, प्रत्याख्यानावश्यक जाये।
याको करे आचारज सोई, तिनपद जजों रहों नहिं मोही।। ऊँ ह्रीं श्री प्रत्याख्यानावश्यकसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तनको मोह जबै सब त्यागो, कायोत्सर्गावश्यक जागो।
याको करे आचाराज सोही, इन पूजा फल रहे न माही।। ऊँ ह्रीं श्री कार्योत्सर्गावश्यकसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
ये षट आवशि करे मुनिन्दा, सो जगनाथ हरे भवफन्दा।
आचाराज इन गुन के धारी, तिनपद धोक अरघ दे भारी।। ॐ ह्रीं श्री षडावश्यकसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
(चौपाई छन्द)
मनकपि ध्यान रज्जु बँधवाय पापविचार विषं नहिं जाय।
आचारज मन इमि वश करे, तिनपद जजों फलै अघ हरे।। ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वचन कहे जिनधुनि अनुसार, वचनगुप्ति जानो जग तार।
याको आचारज प्रतिपाले, तिनपद जजों फलै अघ टाले।। ऊँ ह्रीं श्री वचनगुप्तिसहितायै श्री आचार्यभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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