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दीपिका बनाय रत्न, अन्धके विनाशिया, भले सुपात्र माँहि धार, ज्ञान का विकासिया। जजों सुभाव वैयावृत्य, भावना सुभाय है, फलें तु तास लहे तीर्थ-पदी की उमा यहै।।
__ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावनायै दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
लई जु धूप गन्ध सार, भ्रमर को भ्रमावनी, सुखेय वन्हि मांहि ताहि, भाव की बंधावनी। जजों सुभाव वैयावृत्य, भावना सुभाय है, फलें सु तास लहे तीर्थ-पदी की उमा यहै।।
ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावनायै धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफला बदाम लोंग, आदि जे फला सही, धरे जु पान मांहि भक्त, भावना हिये कही। जजों सुभाव वैयावृत्य, भावना सुभाय है, फलें सु तास लहे तीर्थ-पदी की उमा यहै।।
ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावनायै फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
जला सुगन्ध अक्षता, भले जुपुष्प जानिये, चरूसु दीप धूप फला, अध्य ले आनिये। जजों सुभाव वैयावृत्य, भावना सुभाय है, फलें सु तास लहे तीर्थ-पदी की उमा यहै।।
ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावनायै अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येकायं
चौपाई छन्द गुण छतीस के धरक सोय, संघनाथ आचारज होय।
इनको वैयाव्रत मन लाय, सो तीर्थंकर-पद फलदाय।। ऊँ ह्रीं श्री आचार्यवैयावृत्यभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
गुण पचीस धारनहार, उपाध्याय शिक्षा-दातार। इनको वैयाव्रत मन लाय, सो तीर्थंकर-पद फलदाय।। ऊँ ह्रीं श्री उपाध्यार्यवैयावृत्यभावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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