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ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावना ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्।
नाराच छन्द निरमलो सुनीरलाय, कनकमारिका धरों, अति सुगन्ध क्षीरपय, तास मांहि ये करों। जजों सुभाव वैयावृत्य, भावना सुभाय है, फलें स तास लहे तीर्थ-पदी की उमा यहै।।
___ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावनायै जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
नीर मांहि बावनो, सुचन्दना घसाय हों, धरों सुकनकझारिका, महा सुभक्ति भाय हों। जजों सुभाव वैयावृत्य, भावना सुभाय है, फलें सु तास लहे तीर्थ-पदी की उमा यहै।।
ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावनायै चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षता अखंड खंड-नांहि उज्ज्वला सही, महासुगन्ध सोहना सुभक्तिभला ज्यों कही। जजो सुभाव वैयावृत्य, भावना सुभाय है, फलें सु तास लहे तीर्थ-पदी की उमा यहै।।
__ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावनायै अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
भले सुफूल गन्धधार, देवद्रुम के सही, करी सु माल पोय गूंथ भावभक्ति ले ठही। जजों सुभाव वैयावृत्य, भावना सुभाय है, फलें तु तास लहे तीर्थ-पदी की उमा यहै।।
ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावनायै पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
लिये भले सुमोदकादि, तुरतके किये सही, धरे जु पात्रमांहि भाव, भक्ति ले हिये सही। जजों सुभाव वैयावृत्य, भावना सुभाय है, फलें तु तास लहे तीर्थ-पदी की उमा यहै।।
ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावनायै नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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