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जयमाला (मुनियानन्द की चाल) भावना साधु-समाधि सो जानिये, जती तन विर्षे सुख, होय जिमि ठानिये। रोगवश मुनि मन, नांहि थिर होयजी, रोगविधि नाश ऋषि, ध्यान शुध जीवजी।।
देव खग नरा पशु, दुष्ट जो दुख करें, ताहि जो दूर कर, मुनिको सुख भरे। जती समभाव शिव-साधना लाय है, साधू-समाधि सो, भावना भाय है।।
साधु की भक्ति शिव, शाश्वती देतजी, साधु साता हरे, जगत फेरा सही, साधु की भक्ति शुद्ध, ठाम की है मही, साधु सुख बंधै को, काज सो कीजिये।
साधु की सेवतें, सासते जीजिये, मैं सदा साधु का, भक्ति चाहों सही। होय मोकों शरण, आगले भव मही, साधु को सुख करे, तिको निज अद्य हरे। साधु की विनयजुत, वेदना क्षय करे, साधू समाधि सो, भावना जानिये।
तास फल तीर्थपद, करम को हानिये।।
दोहा
साधु समाधी भाव को, जो भावे-भवि कोय। जो साधू को सुख करे, सो तीर्थंकर होय।।
ऊँ ह्रीं श्री साधुसमाधिभावनायै पूर्णाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
9. वैयावृत्य भावना पूजा
गीता छन्द मुनिराज को मग चलत मन में, खेद जब उपजे सही।
वा घने तप के जोर सेती, काय कछु खीनी भही।। ता समय दावे पांव सिर कर, भाव या विधि जो करे।
सो जान वैयावृत्य पूजो, थाप यहां जो अघ हरे।। ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावना ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
ऊँ ह्रीं श्री वैयावृत्यभावना ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
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