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पट भूषणतें तन श्रृंगार, करे न शीलव्रतों को धार।
तातें यह व्रत सुरपद दाय, सो मैं शील जजों शिरनाय।। ॐ ह्रीं श्री तनृश्रृंगाररहित शीलवाड़सहित-शीलव्रतेष्वनतिचार भावनायै अध्यम् निर्वपामीति
स्वाहा।
नारी जिस शय्या पर सोय, तँह नहिं सोवे व्रतधर कोय।
या फलजीव शिवपाय, सो मैं शील जजों शिरनाय।। ॐ ह्रीं श्री स्त्रीशय्याशनरहित शीलवाड़सहित-शीलव्रतेष्वनतिचार भावनायै अध्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
कामकथा न करें मुख सोय, दे चित कामकथा नहिं जोय।
ऐसी वरत शील सुखदाय, सो मैं शील जजों शिरनाय।। ॐ ह्रीं श्री कामकथारहित शीलवाड़सहित-शीलव्रतेष्वनतिचार भावनायै अध्यम् निर्वपामीति
स्वाहा।
पेट धाप भोजन नहिं खाय, ताके शीतवरत मन आय।
शीलदोष बिन सो शिवदाय, सो मैं शील जजों शिरनाय।। ऊँ ह्रीं श्री पूर्णोदर भोजनरहित शीलवाड़सहित-शीलव्रतेष्वनतिचार भावनायै अध्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
काम चाहतै सोच बढ़ाय, उपजे चित दुख धीर न पाय।
यो तजशीलभाव शुध भय, सो मैं शील जजों शिरनाय।। ऊँ ह्रीं श्री कामेच्छारहित शीलवाड़सहित-शीलव्रतेष्वनतिचार भावनायै अध्यम निर्वामीति
स्वाहा।
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