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व्यसन ये सात नर्क, सात के प्रीतमा, धर्म को दोष, या जान त्यागे। होय जिनदास उर-धार शिवआश भव्य, धर्म धार आप, चित मांहि जागे।। ते जग जस लहे, सफल भवतें रहे, नाहिं जे व्यसन-वश आप आवे।
भेद विज्ञानतें, आप पर भिन्न लखे, दर्शसंशुद्धि भाव सो नाम पावे। ऊँ ह्रीं श्री सर्वव्यसनरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
(वेसरी छन्द) नहिं संक्रान्ति दान सरधाना, जाने आतमरूप पिछाना।
नांहि अतत्त्व भाव उर लावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री संक्रान्तिदिवसदानदोषरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नि सेव नांहीं मन लावे, इसकी दया ठान शम थावे।
नांहि अतत्त्वभाव उर लावे, तो सम्यक्त्व पज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री अग्निसेवारहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
ग्रह नक्षत्र पूज नहिं आने, त्रिभुवनपति पूजे सुख माने।
नांहि अतत्त्वभाव उर लावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री ग्रहनक्षत्रसेवारहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
गोयोनी वा पूंछ न पूजे, अघ कारजतें मन वच धूजे।
नांहि अतत्त्वभाव उर लावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री गोयोनिपुच्छादिसेवारहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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