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यह गिनी गणिका, जगत पातल, जूंठसम बुधजन कही।
जो रमें याते धर्म खोवे, महा अघ की सो मही।। यह व्यसन दुखदा जान त्यागे, महाशुभ फल पाय जी।
जो धरे दर्शविशुद्धि भावन, भलो जिनपद पाय जी।। ऊँ ह्रीं श्री वेश्यारमणव्यसनरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
(खडगा छन्द) आपसम जीव को, घात कैसे करे, घाव किमु देय आयुध तनो जी। कण्टौं काय कम्पाय सब आपकी, दुख थकी रोय, कहे मति हनो जी।।
गोधिया जीव हन, भील या पारधी, ऊंचकुल जीव को ना सतावे। त्याग खेटक व्यसन, दया उर में धरे, दर्शसंशुद्धि भाव सो नाम पावे।। ॐ ह्रीं श्री आखेटव्यसनरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दाम पर का हरे, हरष मन में भरे, पाप निजशिर, धरे मूढ़ प्रानी। चोर के भाव, छलछिद्र अधिको धरे, काय तज दुःख लहे हीनज्ञानी।। व्यसन यह चोर, नर्क देय घनघोर, दुःख लहे अधिकाय, नहीं पार पावे। त्याग यह व्यसन, परिणति को शुद्ध करे, दर्शसंशुद्धि भाव सो नाम पावे।। ऊँ ह्रीं श्री चौर्यव्यसनरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
नारि पर चहे सो, शीश अघ लहे जो, यह त्यागे सो धर्मराह जाने। देख परतिया चित्त, मात सम किया, बहिन सम जान, उर ज्ञान आने। व्यसन उरनांहि ते, शुद्ध चितमाँहि जिय, होय समभाव, शिवराह जावे।
त्याग परनारि का, व्यसन शुद्धमन करे, दर्शसंशुद्धि भाव सो नाम पावे।। ऊँ ह्रीं श्री परदार रमणव्यसनरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वामीति स्वाहा।
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