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मणिपाषाण सेवता नाही, जाने पृथ्वीकाय सु ठांही।
नांहि अतत्त्वभाव उर लावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री मणिरत्नपाषाणादिसेवारहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भूमिदेव पूजा परिहारे, पूजे जिन समता उर धारें।
नांहि अतत्त्वभाव उर लावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री भूमिसेवारहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पर्वत पतन थकी सुख होई, यह भ्रम उर में लहे न कोई।
नांहि अतत्त्वभाव उर लावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री पर्वतपतनरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
नदी-स्नान शुद्धि नहिं माने, ज्ञान-स्नान शुद्ध सरधाने।
नांहि अतत्त्वभाव उर लावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री नदीस्नानश्रद्धान-दर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अग्निपाततें मुक्ति न माने, मुक्ति शुद्ध अनुभव तें जाने।
ज्ञान स्वभाव आप उर भावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री अग्निपातरहित-दर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
कुगुरु सेव श्रद्धा नहिं जाके, वीतराग गुरु गणना ताके।
ताको आतमज्ञान सु भावे तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ॐ ह्रीं श्री कगुरुसेवारहित-दर्शनविशद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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