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जो लघुशक्ति धार जिय होय, पाँचों परवी अनशन जोय। यातें भी लघुशक्ति धरे, तो षट्वास नांहि परिहरे।।4।। ताकी विधि ऐसी ही जान, आदि अन्त दो पड़वा आन। दो आठे दो चौदश वास, ये षट्वासजघन्य विधिभास।।5।। ___ बाकी दिन एकासन करे, एक बार सो भोजन धरे। फेर न लहे नीर का सोय, ऐसे वरत करत शुधहोय।।6।। षोडशवर्ष करे जिय सोय, फिर उद्यापन की विधि होय। नाँहीं व्रत को दुगना करे, पीछे शक्तिसदृश व्रत धरे।।7।
जो फिर शक्ति होय तो धीर, आयु लगें करनों वरवीर। यह सामान्य वरत विधिजान, और विशेष ग्रन्थतें मान।।8।।
सोरठा या विधि षोडशभाव, जो भवि पूजे भावसों।
सो जन जिनपद पाय, और कहा फल गाइये।9।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यः महाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
1. दर्शनविशुद्धि भावना पूजा
(मुनयानन्द की चाल) भावना दर्शनशुद्धि सो जानिये, तास मधि दोष पच्चीस नहिं मानिये। या विना मोक्ष को और अंग ना करे, जजों इमिजान इहाँ थापि सो अघहरे।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धिभावना ! अत्र अवतर अत्र अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धिभावना ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धिभावना ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्।
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