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तिस धूप की ले गन्ध लोलुप, भ्रमर शब्द कराय है। मैं जजों षोड़शभावना शुभ, तीर्थपद की दाय है ।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यः धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।।7॥
फल लेय श्रीफल लोंग खारक, भले और बदामजी । इन आदि और अनेक शुभफल, लेय सुखके कामजी॥ कर कायमनवच भक्ति नीकी, राग उर बहुलाय है।
मैं जजों षोड़शभावना शुभ, तीर्थपद की दाय है ।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यः फलम् निर्वपामीति स्वाहा।।
जल सद्य चन्दन सुभग अक्षत, पुष्प चरु दीपक सही । फिर धूप फल इमिह आठ द्रव्य, भले भावन अघ दही ।। धर भक्ति मनवचकाय हिरदें, आरती शुभदाय है।
मैं जजों षोड़शभावना शुभ, तीर्थपद की दाय है ।।
ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
जयमाला - चौपाई छन्द
षोडशभावन पावन जान, यह तीर्थंकरपद फलदान । याको ध्याय भये जिन घने, चार घातिया कर्म जु हने॥ 1 ॥ भी भवि षोढशकारण करो, ताकी विधी हिये में धरो । तीन प्रकार वरत को करो, जघन मध्य उत्कृष्टै धरो॥2॥ मास एक उपवास कराय, सो उत्कृष्ट जु विधि मन लाय। बेले बेले पारण करे, तथा एकान्तर अनशन धरे ||3||
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