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करि भावना अतिशुद्ध मनवच, काय जोग लगाय है।
मैं जजों षोड़शभावना शुभ, तीर्थपद की दाय है।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यः अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।3।
ले फूल सुरतरु कनक चाँदी, और कृत्रिम जानिये। शुभ गन्ध गुजंत भ्रमर तिनपै, भले पुनि अनुमानिये।। धरि भक्ति हिरदें कायमनवच, हर्ष बहु उपजाय है।
मैं जजों षोड़शभावना शुभ, तीर्थपद की दाय है।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यः पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
कर तुरत नेवज आदि मोदक, भले रस मिलवाय जी। तिस देखतें नैवेद्य को दुख, रोग भूख नशाय जी।। सो लेय निजकर धार हिरदै, भक्ति भाव लगाय है।
मैं जजों षोड़शभावना शुभ, तीर्थपद की दाय है।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यः नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
धर रतनदीपक कनकपातर, आरती शुभचित करो। बहु हर्ष मनवचकाय धरि के, मोहतम-नाशन करो।। हो ज्ञान ता फल भलो केवल, सकल संशय जाय है।
मैं जजों षोड़शभावना शुभ, तीर्थपद की दाय है।। ऊँ ह्रीं श्री दर्शनविशद्धयादिषोड़शकारणेभ्यः दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
धूप दशधा अगर चन्दन, अरु सुगन्ध मिलाय जी। सो खेयकरि फल कर्मक्षय हो, घनी कहा वरनाय जी।।
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