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________________ मुनि ब्रह्मचर्य व्रतधारी, छोड़े सब भाव विकारी। निज आत्म ब्रह्म को ध्यावें, आचार विशुद्ध बनावें।। ॐ ह्रीं ब्रह्मचर्य महाव्रत भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।4।। पंच इन्द्रिय विषय विरक्ता, शुध आत्मभाव अनुरक्ता। अंतः वहि परिग्रह त्यागी, मुनि महाव्रती बड़भागी।। ऊँ ह्रीं अपरिग्रह महाव्रत भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।5।। पांच समिति चार हाथ भू निरख गमन कर, पालें ईर्यासमिति मुनीश। जीव जन्तु पग तले न आवें, यों विवेक धारे गुण धीश।। ऊपर नीचे दायें बायें, दृष्टि न दौड़ाते मुनिराज। मनकी उज्वलता में बाधक, वन न सके वह भौतिक साज।। ॐ ह्रीं ईर्यासमिति भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥6॥ धर्म सभा प्रवचन बेला में, मुख से निकले वाणी मिष्ट। जो हितकारी हो, परिमित हो, प्रिय हो जो नहिं लगे अनिष्ठ।। मुनिवर भाषा समिति संवारें, मृवाणी का रखते ध्यान। भव्यों को शिव मग दरशाकर जन-जन का करते कल्याण।। ॐ ह्रीं भाषासमिति भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।7। 798
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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