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छेद दर्शनावरण को, पाया दरश अनन्त।
जिसकी महिमा का कथन, होता कभी न अन्त॥2॥ ऊँ ह्रीं अनन्तदर्शन गुण स्वामिने सिद्धपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानावरण विनाशते प्रकटा ज्ञान अनन्त।
तीन लोक स्वामी प्रभो, तब गुण का नहिं अन्त।।3।। ऊँ ह्रीं अनन्तज्ञान गुण स्वामिने सिद्धपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
नाम कर्म के नाश तै, सिद्ध सूक्ष्म गुणवान।
हटी मलिनता, भार से मुक्त हुए भगवान।।4।। ऊँ ह्रीं सूक्ष्मत्व गुण स्वामिने सिद्धपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
गोत्र कर्म के नाश तें, अगुरुलघू गुण प्राप्त।
उच्च नीच के भेद से मुक्त, मुकति सम्प्राप्त।।5। ॐ ह्रीं अगुरुलघुगुण स्वामिने सिद्धपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
अवगाहन गुण पा लिया, आयु कर्म कर नाश।
आयु नहीं, फिर क्यों रहे कर्मबन्ध का पाश।।6।। ऊँ ह्रीं अवगाहन गुण स्वामिने सिद्धपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
अव्याबाधी गुण धनी, वेदनीय को नाश।
सुख दुख दाता वेदनी हटी, न बाधा पाश।।7। ॐ ह्रीं अव्यावाध गुण स्वामिने सिद्धपरमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
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