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तत्वदृष्टि सम्यक जगी, जागा दरश अनन्त। स्व पर भेद श्रद्धान तैं, पाया पद अरहन्त ॥ 44৷
ऊँ ह्रीं अनन्त दर्शन गुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। 44।
जय के नश्वर सुख ते, निरावाध सुख काज
सुख अनन्त शाश्वत लहें, जयवन्ते जिनराज ॥ 45
ॐ ह्रीं अनन्त सुख गुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अपरिमेय अनुपम अतुल, बल के धनी महन्त।
काल वली वश में किया, जन्म जरा कर अन्त৷৷46৷
ऊँ ह्रीं अनन्त वीर्य गुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अनन्त चतुष्टय धनी, तीन लोक शिरताज । अविनाशी अरहन्त पद, प्राप्त हुये जिनराज ।।
प्रभु अनन्त गुण के धनी, कथन न सम्भव जान।
सुगुण छयालिस का कथन, व्यवहारिक प्रतिमान।।
ऊँ ह्रीं षट चत्वारिंशत् गुण महिमा मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धपरमेष्ठी के आठ मूलगुण
मोह क्षार कर प्रभु लहा, गुण क्षायिक सम्यक्त्व।
आत्मगुणों में रमण ही, शुद्ध रहा जीतव्य ॥ 1 ॥
ऊँ ह्रीं परम सम्यक्त्व गुण स्वामिने सिद्धपरमेष्ठिने नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
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