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________________ जिनवर की स्तुति में चौसठ, यक्षाधिप चंवर ढुराते हैं। चे चिरजीवी क्षण शब्द जाल में, कभी नहीं बंध पाते हैं।। सुरगण चरणों में शीश झुका, अर्हन की भक्ति रचाते हैं। कर्मों के बन्धन से छूटे, वस यही भावना भाते हैं।।41।। ऊँ ह्रीं चामर प्रातिहार्यातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जिनराज आपके चहुंदिश ही, दुंदुभि निनाद हो मनहारी। जगतीत्रय को संदेश सुना, कहता प्रभु महिमा बलिहारी।। हितकर सन्देश ध्वनित करता, ध्यावों सर्वज्ञ हितंकर को। तजकर प्रमाद सेवो ध्यावों, निर्दोष शिवंकर जिनवर को॥42॥ ॐ ह्रीं दुंदुभि प्रातिहार्यातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। सर्वश्रेष्ठ महिमा मयी, प्रातिहार्य गुण जान। पुण्य फलै, सीमा रहित, जो करते प्रभु ध्यान।। ऊँ ह्रीं अष्ट प्रातिहार्य गुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। अनन्त चतुष्टय छूटा ज्ञानावरण मल, उपजा केवल ज्ञान। प्रभु अनन्त ज्ञानी हुए, वीतराग भगवान।।43।। ऊँ ह्रीं अनन्त ज्ञान गुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। 777
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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