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________________ सिंहासनस्थ जिनके ऊपर, त्रय छत्र सजाते हैं, सुरगण। जो कहते, जिनवर तीन लोक के अधिपति, अरू नत है कणकण।। आतम स्वभाव रवि जिनवर की, सेवा हित जब सन्मुख आया। आताप निवारण भाव लिये, तब छत्र रूप धर शशि धाया।।37॥ ऊँ ह्रीं छत्र त्रय प्रातिहार्यातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु के पीछे सिंहासन पर, भागमण्डल दीप्ति लिये चमके। जिसमें अतीत के त्रय, भावी त्रय, वर्तमान भव सब झलकें।। अर्हन्त देव की देह छटा, भामण्डल छवि द्विगुणित करती। निज पाप पुण्य फल दिखा, भव्य को शिवपथ में प्रेरित करती।।38।। ऊँ ह्रीं भागमण्डल प्रातिहार्यातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु के सर्वांग प्रदेशों से, खिरती दिव्य-ध्वनि हितकारी। सब सुनते अपनी भाषा में, धनि है महिमा की बलिहारी।। ओंकार रूप ध्वनि, प्रतिध्वनि, होती अठ दश भाषाओं में। लघु भाषा सात शतक जिसको, पहुंचाती दशों दिशाओं में।। ऊँ ह्रीं दिव्यध्वनि प्रतिहार्यातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। अर्हन्त देव के चहुदिश हो, सुरपुष्प वृष्टि आनन्दमयी। जो सुरभित करती दिगदिगन्त, कहती प्रभु महिमा कर्मजयी।। वे पुष्प सरल मृदु मनमोहक, जन जन को याद दिलाते हैं। जो निच्छल सरल स्वभावी हैं, वे ही सबके मन भाते हैं।।40॥ ॐ ह्रीं सुरपुष्पवृष्टि रूपातिशय मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। 776
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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