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अन्तरायविधि पंचप्रकृति हैं, प्रभु ने सर्व विनाशी।
शान्तिजिनेश दया के सागर, पूजों पद अविनाशी।।16॥ ओं ह्रीं श्री अन्तरायकर्मबन्धबन्धनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्रवोपद्रवनिवारकाय
श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शन ज्ञान चरण से भूषित, पंच परमपद पाऊँ। शान्तिनाथ जिन के चरणों में नितप्रति अध्य चढाऊँ॥17॥ ओं ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिपदप्रदाय दर्शनज्ञानचारित्रकारकाय अष्टकर्मनिवारकाय
श्री शान्तिनाथाय द्वितीयबलयमध्ये पूर्णाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तृतीय बलय पूजा प्रारम्भ
स्थापना हे शान्तिप्रभो ! हे शान्तिप्रभो, मेरे मन-मन्दिर में आओ। अघवर्ग-विनाशन-हेतु प्रभो, निज शान्त छवि शुभ दर्शाओ।।1।।
कर्मो के बन्धन खुलते हैं, प्रभु नाम तुम्हारा जपने से। भव-भोग-शरीर विनश्वर तब, क्षणभंगुर लगते सपने से।।2।।
नरजन्म सफल यह होता है, जब ध्यान तुम्हारा आता है। निजरूप में लीन हुआ, प्रभु ! वह, भव-सागर से तर जाता है।।3।। ओं ह्रीं श्री सर्वकर्मबन्धनविमुक्त ! सकलविघ्नशान्तिकर ! मंगलप्रद ! पंचम चक्रेश्वर !
श्रीशान्तिनाथ भगवन ! अत्रावतर अवतर सम्वौषट् (इत्याह्वननम्) ओं ह्रीं श्री सर्वकर्मबन्धनविमुक्त ! सकलविघ्नशान्तिकर ! मंगलप्रद ! द्वादशकामदेव !
श्रीशान्तिनाथ भगवन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ओं ह्रीं श्री सर्वकर्मबन्धनविमुक्त ! सकलविघ्नशान्तिकर ! मंगलप्रद ! षोडशतीर्थंकर ! श्रीशान्तिनाथ भगवान ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। इति तृतीयवलयोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
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